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१० ११०. ५० ५] टिप्पणानि।
१८५ तिरेकि संपश्येत तत्पर्युदासेन । तब नास्ति । सर्वत्र निवृत्तिर्मवंति इत्युक्ते षस्वन्तरस्यैव कस्यचित् विधानात् ।" हेतुबि० टी० पृ० ८१ । कर्ण० पृ०५२।
पृ० ११९. पं० ९. 'तदव्यतिरेकि अशुद्ध है । इस प्रकार शुद्ध करना चाहिए"सदबचि]तिरेकि" देखो, ऊपरका टिप्पण।।
पृ० १२०. पं० २. 'त्रीणाममोक्षम्' बीमोक्षकी दार्शनिक चर्चा संस्कृतमें शा कटा यनने सर्वप्रथम की हो ऐसा जान पडता है। उनके पहले चर्चा चल पड़ी थी इसमें तो संदेह महीं किन्तु उस चर्चाको व्यवस्थित रूप सर्व प्रथम उन्हींने दिया है यह इसलिये संभव जान पड़ता है कि सीमोक्षका समर्थन करनेवाले श्वेताम्बर दार्शनिक प्रन्य और बीमोक्षका निराकरण करनेवाले समस्त दिगम्बर दार्शनिक अन्य शाकटायमके श्रीमुक्ति प्रकरणको ही भाधारभूत मानकरके चलते हैं । वेताम्बर अपने पक्षके समर्थनमें उक प्रकरणका उपयोग करते है और दिगम्बर उक्त प्रकरणकी प्रत्येक युक्तिको पूर्वपक्षमें रखकर उसका खण्डन करते हैं। ___ भाचार्य जिन भद्र ने युक्तिपुरःसर वनका समर्थन करनेका प्रयन किया है किन्तु सीमुक्तिकी चर्चा उन्होंने नहीं की। आचार्य कुन्दकुन्द ने इस प्रश्नको उठाया है किन्तु वह दार्शनिक ढंगकी चर्चा न होकर आगमिक मालूम होती है। उनके बादही इस चर्चाने गंभीर रूप पकडा है इसमें तो संदेह है ही नहीं । पूज्य पाद जैसे आचार्य मात्र निषेध करके ही चुप रह माते हैं विशेष युकि नहीं देते । अकलंक ने भी विशेष चर्चा नहीं की।
प्रतीत होता है कि श्रीमुक्तिकी चर्चा प्रथम यापनीय और दिगम्बरोंके बीच शुरू हुई । यापनीयोंने स्त्रीमोक्षका समर्थन किया। उन्हींकी युक्तिओंको श्वेताम्बरोंने अपनाया । वाचार्य हरिभद्र ने इस चर्चाको चेताम्बरीय ग्रन्थोंमें प्रविष्ट की हो ऐसा जान पडता है । भाचार्य हरिभवने इस चर्चाको यापनीयोंसे लिया है इस विषयमें सन्देहको स्थान नहीं । क्योंकि उन्होंने ललितविस्तरामे इस विषयमें प्रमाणभूत यापनीय तरको साक्षी रूपसे उद्धृत किया है। ललितविस्तरा पृ० ५७।
इसके बाद तो यह चर्चा मुख्य रूपसे श्वेताम्बर और दिगम्बरोंके बीच हुई है। किन्तु दोनोंकी चर्चाकी मूल मित्ति शा कटायन का खीमुक्तिप्रकरण ही रहा है । उसीके आधार पर अमयदेव, प्रभाचन्द्र, वादीदेवरि और यशोविजयजीने इस चर्चाको उत्तरोत्तर पल्लवित की है।
प्रस्तुतमें शान्याचार्यने मी मुख्यरूपसे शाकटायनके प्रकरणको ही पूर्वोत्तरपक्षकी चर्चाका भाधार बनाया है जो तुलनासे स्पष्ट होगा। पृ० १२०. पं०५. रसत्रयस' तुलना
"मति मीनिर्वाण पुंषत् यदविकलहेतुकं लीषु । नविरुण्यते हि रखत्रयसपद निवृतेहेतुः॥" नीमु० २ । सन्मति० टी० पृ०
७५२ । न्यायक० पृ० ८३५। .. ..देखो वीमुकिकरणमें पूर्णपक्ष । ३. विशेषा० गा० २५५८ से। सूत्रप्राभूत (षट्माम तान्तर्गत) गा० २३-२६ । ४. सर्वार्थः १०.९ । बाजवा पृ० १६६। ५. सम्मति टी०पू०७५१ । न्यायकु०पू०८६५ । प्रमेयक० पू० ३२८ । शासवा० यशो० पृ०४२४४३० । स्थाबाद (डित) पृ० १९२२ ।
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