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________________ १. १८.५० २८] टिप्पणानि । चर्चासे स्पष्ट है कि नैयायिकों को ईश्वर निमित्तकारण रूपसे इष्टबत एक बारके टीकाकारोंने इस प्रकरणको ईश्वरोपादानतानिराकरणप्रकरण' ऐसा नाम दिया है और मूलसूत्रों की टीकामें वेदान्तसंमत ब्रमकी उपादानकारणताका निरास किया है। नै या यि.कों के मतसे जगदका उपादान कारण पार्थिव भादि परमाणु है। ईघरकारणषाद प्राचीन है। किन्तु प्राचीन कालमें ब्रामणग्रन्थों में और उपनिषदू साहित्यमें मम या प्रजापतिके रूपमें उसे जगत्का उपादान कारण माना है। नैयायिकों ने अपनी तर्क बुखिसे उसे कारण तो सिद्ध किया किन्तु उपादान न मानकर निमित्त कारण माना। यही बात वैशेषिकों ने भी की। इसके विपरीत नमसूत्र में शंकर आदि आचार्योंने नै या विक और वैशेषिक समत निमित्तकारणवादका प्रबल विरोध करके ईश्वरको जगत् का अधिष्ठाता और उपादान सिद्ध किया है।-० अम० २.२.३७-४१. । जैन, मी मां सक, सांख्य, योग और बौद्ध ईबरको जगतका निमित्तकारण या उपादानकारण कुछ भी नहीं मानते । ईबरकी सिद्धिमें शान्त्या चार्य ने जो अनुमान उपस्थित किया है उसके लिये तथा वैसे दूसरे अनुमानोंके लिये देखो-न्यायवा० पृ० १५७-४६७ । न्यो० पृ० ३०१ । कंदकी. पृ० ५७ । न्यायमं० पृ० १७८ । तात्पर्य० पृ० ५९८ । १. १८.५० १६. 'सर्वज्ञत्वे तुलना-"सर्वकर्दवासिनी ववत्वमपत्नतः । निबमम पता कर्ता कार्यकपादिवेदकः ॥" तस्वसं० का० ५५। "सा- इति सर्वार्थातीतानागतवर्तमानविषया प्रत्यक्षा नानुमानिकी"-न्यावया. पृ० १५६। पृ० ३८. पं० २०. 'खरूपेण उकना-"तवासिनता हेतोः प्रथमे बाधने पतः । सचिवेयो न योगाच्या सिदो नाषयवी यतः॥" - तत्स्वसं० का० ५६ । इस कारिकाकी व्याख्याका मूलाधार सन्म ति टी का है । सन्म ति टी का मी अपने पुरोगामि बौद्ध ग्रन्थोंकी ऋणी है।- देखो सन्मति० टी० पृ० १०२-१०५ । तथा तत्त्वसं० न्यपदार्थपरीक्षा । सन्म ति में पूर्वपक्ष पृ० ९३ वें से शुरू होता है। पु० ३८. पं० २५. संस्थानवद' इस अनुमानसे पर्वतादिमें कार्यस्व सिद्ध किया गया है। देखो म्यो० पृ० ३०१ न्यायमं० पृ० १७८ । तात्पर्य० पृ० ५९९। इसकी समागेपनाके लिये देखो, श्लोकवा० पृ० ६५९ । सम्बन्धाक्षेपपरि० ७४ से । प्रमाणवा० १.१२ । पृ० ३८. पं० २८. 'अवयवी' प्राचीन समयसे ही दार्शनिकोंने स्थूल दृश्य विधा - .."वकारिवत्वादि युवता निमित्तकारणमीबर इलपगवं भवति"-न्यायवा० पू० ४५७ । .. तात्पर्य०१० ५९३ । ३. "जगवः साक्षादुपादानकारणं किम् । रथं प्रविबादिपरमस्वयं परमाणुसंशितं व्यसमिति" न्यायवा०पू०४५७। १.खाबादम० में प्रो.जगदीश चन्द्र वैदिक साहिल के विविध मोका वर्णन किया है उसे देखना चाहिए-पू०४११ । तयासमा २.२.३७-४१। - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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