SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९६ उदाहरण । या एकान्त अनित्य मानते हैं उनके मतमें सुख-दुख -संसार - मोक्षकी घटना बन नहीं सकती । इस लिये दोनों पक्षोंको छोडकर अनेकान्तका आश्रय लेना चाहिए। दूसरे दार्शनिक जिसे प्रसंगापादन कहते हैं उसकी तुलना अपायसे करना चाहिए । सामान्यतया दूषणको मी अपाय कहा जा सकता है । वादीको स्वपक्षमें दूषणका उद्धार करना चाहिए और परपक्षमें दूषण देना चाहिए । ( २ ) उपाय - इष्ट वस्तुकी प्राप्ति या सिद्धिके व्यापार विशेषको उपाय कहते हैं । आत्मास्तिस्वरूप इष्टके साधक समी हेतुओंका अवलंबन करना उपायोदाहरण है । जैसे आत्मा प्रत्यक्ष नहीं है फिर मी सुख-दुःखादि धर्मका आश्रय - धर्मी होना चाहिए। ऐसा जो धर्मी है वही आत्मा । तथा जैसे देवदत्त हाथीसे घोडेपर संक्रान्ति करता है, प्रामसे नगर में, वर्षा से शरदमें और औदयिका दिभावसे उपशममें संक्रान्ति करता है वैसेही जीव भी - द्रव्यक्षेत्रादिमें संक्रान्ति करता है तो वह मी देवदत्तकी तरह है'। बौद्धग्रन्थ 'उपायहृदय' में जिस अर्थ में उपाय शब्द है उसी अर्थका बोध प्रस्तुत उपाय शब्दसे मी होता है । वादमें वादीका धर्म है कि वह खपक्षके साधक सभी उपायोंका उपयोग करे और स्वपक्षदूषणका निरास करे । अतएव उसके लिये वादोपयोगी पदार्थोंका ज्ञान आवश्यक है । उसी ज्ञानको करानेके लिये 'उपायहृदय' ग्रन्थ की रचना हुई है । स्थानांगगत अपाय और उपायका भी यही भाव है कि अपाय अर्थात् दूषण और उपाय अर्थात् साधन । दूसरेके पक्ष में अपाय बताना चाहिए और स्वपक्षमें अपायसे बचना चाहिए । खपक्षकी सिद्धिके लिये उपाय करना चाहिए और दूसरेके उपायमें अपायका प्रतिपादन करना चाहिए । (३) स्थापनाकर्म - इष्ट अर्थकी सम्यग्प्ररूपणा करना स्थापनाकर्म है। वादी प्रतिवादीद्वारा व्यभिचार बतलाये जानेपर व्यभिचार निवृत्तिद्वारा यदि हेतुकी सम्यग् स्थापना करता है तब वह स्थापना कर्म है "संचमिचारं हेतुं सहसा वोतुं तमेव अजेहिं । उपवूहर सप्पसरं सामत्थं चप्पणो नाउं ॥ ६८ ॥" अभयदेवने इस विषय में निम्नलिखित प्रयोग दरसाया है "अनित्यः शब्दः कृतकत्वात्" यहाँ कृतकत्वहेतु सव्यभिचार है क्योंकि वर्णात्मकशब्द नित्य है । किन्तु वादी वर्णात्मकशब्दको मी अनित्य सिद्ध कर देता है - कि "वर्णात्मा शब्दः कृतकः, निजकारणमेदेन भिद्यमानत्वात् घटपटादिवत्" । यहाँ घटपटादिके दृष्टान्तसे वर्णात्मकशब्दका अनित्यस्व स्थापित हुआ है अतएव यह स्थापनाकर्म हुआ । ' स्थापनाकर्म' की भद्रबाहुकृत व्याख्याको अलग रखकर अगर शब्दसादृश्य की ओर ही ध्यान दिया जाय तो चरकसंहितागत स्थापनासे इसकी तुलना की जा सकती है। चरकके मतसे किसी प्रतिज्ञाको सिद्ध करनेके लिये हेतु दृष्टान्त उपनय और निगमनका आश्रय १ वही ६३-६६ | २ दूषीने चीनी संस्कृत में इस ग्रन्थका अनुवाद किया है। उन्होंने जो प्रतिसंस्कृत 'उपाय' शब्द रखा है वह ठीक ही जंचता है। यद्यपि स्वयं द्वचीको प्रतिसंस्कृत में संदेह है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy