SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना। इस चर्चामें प्राकृत भाषाके कारण शब्दच्छलकी गुंजाईश है यह बात भाषाविदोंको कहनेकी आवश्यकता नहीं। ६८ उदाहरण-शात दृष्टांत । जैनशासमें उहाहरणके भेदोपमेद बताये हैं किन्तु उदाहरणका नैयायिकसंमत संकुचित अर्थ न लेकर किसी वस्तुकी सिद्धि या असिद्धि में दी जानेवाली उपपत्ति उदाहरण है ऐसा विस्तृत अर्थ लेकरके उदाहरण शब्दका प्रयोग किया गया है । अतएव किसी स्थानमें उसका अर्थ दृष्टान्त तो किसी स्थानमें आख्यानक, और किसी स्थानमें उपमान तो किसी स्थानमें युक्ति या उपपत्ति होता है । वस्तुतः जैसे चरकने वादमार्गपद' कह करके या न्यायसूत्रने' तत्त्वज्ञानके विषयभूत पदार्थोंका संग्रह करना चाहा है वैसे ही किसी प्राचीन परंपराका आधार लेकर स्थानांग सूत्रमें उदाहरणके नामसे वादोपयोगी पदार्थोका संग्रह किया है । जिस प्रकार न्यायसूत्रसे चरकका संग्रह खता है और किसी प्राचीनमार्गका अनुसरण करता है उसी प्रकार जैन शास्त्रगत उदाहरणका वर्णन भी उक्त दोनोंसे पृथक् ही किसी प्राचीन परंपराका अनुगामी है । ___ ययपि नियुक्तिकारने उदाहरणके निम्न लिखित पर्याय बताये हैं किन्तु सूत्रोक्त उदाहरण उन पर्यायोंसे प्रतिपादित अर्थोंमें ही सीमित नहीं है जो अगले वर्णनसे स्पष्ट है "नायमुदाहरणं ति य विद्रुतोवम निदरिसणं तहय। एगटुं" - दशवै० नि० ५२ । स्थानांगसूत्रमें ज्ञात-उदाहरणके चार भेदोंका उपमेदोंके साथ जो नामसंकीर्तन है वह इस प्रकार है -सू० ३३८ । १ आहरण २ आहरणतद्देश ३ आहरणतदोष ४ उपन्यासोपनय (१) अपाय (१) अनुशास्ति (१) अधर्मयुक्त (१) तद्वस्तुक (२) उपाय (२) उपालम्भ (२) प्रतिलोम (२) तदन्यवस्तुक (३) स्थापनाकर्म (३) पृच्छा (३) आत्मोपनीत (३) प्रतिनिम (४)प्रत्युत्पन्नविनाशी (४) निश्रावचन (४) दुरुपनीत (४) हेतु उदाहरणके इन मेदोपमेदोंका स्पष्टीकरण दशवैकालिकनियुक्ति और चूमि है । उसीके आधारपर हरिभद्रने दशवैकालिकटीकामें और अभयदेवने स्थानांगटीकामें स्पष्टीकरण किया है। नियुक्तिकारने अपायादि प्रत्येक उदाहरणके उपभेदोंका चरितानुयोगकी दृष्टि से तथा द्रव्यानुयोगकी दृष्टिसे वर्णन किया है किन्तु प्रस्तुतमें प्रमाण चर्बोपयोगी द्रव्यानुयोगानुसारी स्पष्टीकरण ही करना इष्ट है। (१) आहरण। (१) अपाय अनिष्टापादन करदेना अपायोदाहरण है । अर्थात् प्रतिवादीकी मान्यतामें अनिष्टापादन करके उसकी सदोषताके द्वारा उसके परित्यागका उपदेश देना यह अपायोदाहरणका प्रयोजन है। भद्रबाहुने अपायके विषयमें कहा है कि जो लोग आत्माको एकान्त निल १वही सू०२७। २ म्यापसू० १..। . ३ "ब्वादिएहि नियो एगंतेणेव जेसि अप्पा उ। होडमभावो तेसिं सुहदुहसंसारमोक्खाणं॥ ५९॥ सुहदुक्खसंपोगोन विजई निबवायपक्वंमि । पगंतुच्छेभमि म सुहदुक्खविगप्पणमजुत्तं ॥६०॥" दशवै० मि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy