SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ सिंधी जैन प्रन्थ मा छा । युक्म व्यापार सूटके सबसे बड़े व्यापारी हो गये थे। उनके पुरुषार्थसे उनकी व्यापारी पेढी जो हरिसिंह निहालचंद के नामसे चलती थी, वह बंगालमें जूटका व्यापार करनेवाली देशी तथा विदेशी पेढीयोंने सबसे बड़ी पेठी गिनी जाने लगी । बाबू डालचंद सिंघीका जन्म संवत् १९९१ में हुआ था और १९३५ में उनका भीमकुमारीके साथ विवाह हुआ। १४-१५ वर्षकी अवस्थामें डालचंदजीने अपने पिताकी दुकानका कारभार, जो कि उस समय बहुत ही साधारणरूपले चढता था, अपने हाथमें लिया। वह अजीमगंज छोड कर का आये और वहाँ उन्होंने अपनी परिश्रमशीलता तथा उच्च अध्यवसायके द्वारा कारभारको धीरे धीरे बहुत ही बडाया और अंत में उसको एक सबसे बड़े फर्म के रूपमें स्थापित किया। जिस समय का 'जूद बैंकर्स एसोसिएसन' की स्थापना हुई, उस समय बाबू डालचंदजी सिंधी उसके सर्वप्रथम मेसिडेण्ट बनाये गये। सूटके व्यापारमें इस प्रकार सबसे बड़ा स्थान प्राप्त करनेके बाद उन्होंने अपना लक्ष्य दूसरे दूसरे उद्योगोंकी जोर भी दिया। एक ओर उन्होंने मध्यमान्तस्थित कोरीया स्टेटमें कोयलेकी उद्योगकी नींव डाली और दूसरी ओर दक्षिणके कति और भकखतरा के राज्योंमें स्थित चूने के पत्थरोंकी सामों तथा बेलगाम, सावंतवाडी, इचलकरंजी जैसे स्थानोंमें माई हुई 'बोक्साइट' की बाग विकासकी शोधके पीछे अपना सक्ष्म केन्द्रित किया। कोयलेके उद्योगक किये उन्होंने मेसर्स 'डाकचंद बहादुरसिंह' इस नामकी नवीन पेठीकी स्थापना की, जो कि भाज हिंदुस्तान में एक अग्रगण्य पेठी गिनी जाती है। इसके अतिरिक्त उन्होंने बंगालके चोबीसपरगना, रंगपुर, पूर्णिया आदि परगनेोर्म बड़ी जमींदारी भी खरीदी और इस प्रकार बंगालके नामांकित जमींदारोंमें भी उन्होंने अपना का स्थान प्राप्त किया। बाबू डालचंदजीकी ऐसी सुप्रतिष्ठा केवल व्यापारिक क्षेत्र में ही मर्यादित नहीं थी। वह अपनी उदारता और धार्मिकताके किये भी उतने ही सुप्रसिद्ध थे। उनकी परोपकारवृति भी उतनी ही प्रशंसनीय थी । परंतु साथमें परोपकारसुलभ प्रसिद्धिसे वे दूर रहते थे। बहुत अधिक परिमाण में वे गुप्त रीति से ही अर्थी जनों को अपनी उदारताका लाभ दिया करते थे । उन्होंने अपने जीवन में छालोंका दान किया होगा; परंतु उसकी प्रसिद्धिकी कामना उन्होंने स्वममें भी नहीं की। उनके सुपुत्र बाबू भी बहादुर सिंहजीने प्रसंगवश मुझे कहा था कि 'वे जो कुछ दान आदि करते थे उसकी खबर पे मुझ तकको भी म होने देते थे।' इसलिये उनके दान सम्बन्धी केवळ २-४ प्रसों की ही खबर मुझे प्राप्त हो सकी थी। सन् १९२६ में 'चित्तरंजन सेवा सदन' के लिये कलकतामें चंदा किया गया था। उस समय एक चार महात्माजी उनके मकान पर गये थे तब उन्होंने बिना मांगे ही महात्माजीको इस कार्यके किये १०००० दस हजार रुपये दिये थे। १९१७ में कलकत्ता में 'गवर्नमेण्ट हाउस' के मेदानमें, लॉर्ड कामइकल के सभापतित्वमें रेडक्रॉसके किये एक उत्सव हुआ था उसमें उन्होंने २१००० रुपये दिये थे तथा प्रथम महायुद्ध के समय उन्होंने ३,००,००० रुपये के 'बॉर बॉण्ड' खरीद कर सरकारी चंदे में मदद की थी। अपनी अंतिम अवस्थाम उन्होंने अपने निकट इटुम्बी बनोंको जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत ही साधारण प्रकारकी थी उनको बारह 1 रुपये बांट देने की व्यवस्था की थी जिसका पालन उनके सुपुत्र बाबू बहादुर सिंहजीने किया था। बांबू डालचंदजीका गार्हस्थ्यजीवन बहुत ही आदर्शरूप था । उनकी धर्मपत्नी श्रीमती मञ्जुकुमारी एक आदर्श और धर्मपरायण पत्नी थी। पतिपक्षी दोनों सदाचार, सुविचार और सुसंस्कारकी मूर्ति जैसे थे। डालचंदजीका जीवन बहुत ही सादा और साध्यसे परिपूर्ण था। व्यवहार और व्यापार दोनों उनका अर्थव प्रामाणिक और नातिपूर्वक वर्तन था। स्वभावसे वे बहुत ही शान्त और निरभिमानी थे । ज्ञानमार्ग के ऊपर उनकी गहरी श्रद्धा भी उनकी वस्वज्ञानविषयक पुस्तकोंके पठन और अवणकी ओर अत्यधिक रुचि रहती थी। किखनगर कॉलेजके एक अध्यात्मशी बंगाली प्रोफेसर बाबू लाल अधिकारी, जो योगविषयक प्रक्रिया अच्छे अभ्यासी और तत्वचिंतक थे, उनके सहवाससे बाबू डालचंदजीकी मी बांगिक प्रक्रियाकी ओर खून इथे हो गई थी और इसलिये उन्होंने उनके पाससे इस विषयकी कुछ खास प्रक्रियाओंका गहरा अभ्यास भी किया था। शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक पवित्रताका जिससे विकास हो ऐसी, व्यावहारिक जीवन के लिये अत्यंत उपयोगी कितनी ही योगिक प्रक्रियाओंकी भोर, उन्होंने अपनी पत्नी तथा पुत्र-पुत्री को भी अभ्यास करने के लिये प्रेरित किये थे । Jain Education International - For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy