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________________ १४६ टिप्पणानि । [पृ० १६.५० १३समवाय कहा है । अर्थात् द्रव्यको गुणादिलपसे परिणति ही समवाय है- द्रव्यका गुणादिके साथ एकलोलीभाव ही समवाय है- स्याद्वादर० पृ० ९६५,९७० । अभ य देव ने स्पष्ट कहा है कि समवायका अन्तर्भाव जीव और अजीवमें है। पिछले समयमें नव्य नै या यि कों ने समवाय के ऊपर दिये गए दोषोंका अवलोकन करके उन दोषोंकी यथार्थता मानकर समवायको अनिस्य और अनेकरूप माना है। __ पृ० १६. पं० १३. 'नच कश्चित् तुलना-“समवायाग्रहादः सम्बन्धादर्शनं स्थितम्" -प्रमाणवा० २.१४९ । पृ० १६. पं० ११. 'इहेति' प्रशस्त पाद ने समवायको इहबुद्धिसे अनुमेय कह दिया है। प्रस्तुत अनुमानके प्रयोगके लिए देखो-व्यो० पृ० १०९। समवायके समर्थनके लिए देखो-न्यायवा० पृ० ५२-५३ । व्यो० १०७-१०९,६९८ । समवायके खण्डनके लिए देखो-श्लोकवा० ४.१४६ । प्रमाणवा० २.१४९-१५३ । तत्त्वो० पृ. ७,७५ । प्र० शांकर० २.२.१३,१७। तत्स्वार्थश्लो० पृ० १९, ५९ । न्याया० टी० पृ० ३६ । सन्मति० टी० पृ० १०६,१५६,७०० । न्यायकु० पृ० २९४ । स्थाद्वादर० पृ० ९६५। पृ० १६. पं० १८. 'उक्तमत्र' देखो पृ० १४. पं० १४ । पृ० १७. पं० २. 'अमिधासते' देखो पृ० १९. पं० २२ । पृ० १७. पं० ३. 'प्रतिपादयिष्यते' देखो पृ० ९१. पं० १। पृ०.१७. पं०५ 'सामयेकदेश सामग्रीप्रमाणवाद दो प्रकारका है । सकल कारकसमुदाय जो बोधाबोधखभाव है प्रमाण है - यह पक्ष व्योम शिव और जयन्तभका है"भव्यभिचारिणीमसन्दिग्यामर्थोपलब्धि विवधती बोधाबोधखमावा सामग्री प्रमाणम्"न्यायमं० पृ० १२ । व्यो० पृ० ५५४। दूसरे एक पक्षका खयं जयन्त ने निर्देश किया है। उस मतके अनुसार सकल कारकका समुदाय नही किन्तु. कर्ता और कर्म से व्यतिरिक्त कारक समुदाय प्रमाण है "कर्तृकर्मव्यतिरिक्कमव्यभिचारादिविशेषणकार्थप्रमाजनकं कारक करणमुच्यते । तदेष चहतीयया व्यपदिशन्ति-दीपेन पश्यामि, चक्षुषा निरीक्षे” इत्यादि न्यायमं० पृ० १३ । इसी सामग्र्येकदेशको प्रमाण कहनेवालेके मतसे चक्षुरादि प्रमाण होंगे। शान्त्या चार्य ने 'आदि शब्दसे इसी दूसरे मतका ग्रहण किया है । सन्म ति टी काकारने दोनों प्रकारके सामग्रीवादका उल्लेख किया है-सन्मति० टी० पु० ४५८. पं०९। सामग्रीप्रामाण्य के खण्डन के लिए देखो-सन्मति० टी० पृ० ४७१ । न्यायकु० पृ० ३३ । पृ० १७. पं० ५. 'चक्षुरादिः' इन्द्रियके प्रामाण्यके खण्डनके लिए देखो तत्त्वार्थश्लो० पृ० १६७। पृ० १७. पं० ६. 'प्रामाण्यम्' जैम दर्शनमें प्रामाण्यचिन्ता दो दृष्टिओंसे होती हैभाध्यात्मिक दृष्टि अथवा निश्चय दृष्टिसे और बाह्य दृष्टि अथवा व्यावहारिक दृष्टि से । १. सन्मतिटी० पृ० ७३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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