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________________ १३० टिप्पणानि । [ पृ० ११. पं० १० अर्थात् आदिवाक्यमें क्या कहना चाहिए और उसे क्यों कहना चाहिए यह चर्चा देखी नहीं जाती । इन मूल ग्रन्थोंकी जब टीकाएँ लिखी जाने लगीं तब ही इस चर्चा का सूत्रपात होता । व्याकरण महा भाष्य के प्रारम्भमें ही पतञ्जलि ने व्याकरणके प्रयोजनोंका प्रतिपादन किया है । इससे हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि पतञ्जलि के समयमें प्रन्यारम्भमें प्रयोजनका प्रतिपादन करनेकी प्रथाने' मूर्तरूप धारण किया था। इससे पहलेके ग्रन्थोंमें ऐसी चर्चा हमारे देखने में आई नहीं और बादके प्रायः सभी ग्रन्थोंके प्रारम्भमें आदिवाक्यकी विविधरूपसे चर्चा देखी जाती है । इससे यही कहना पडता है कि यह चर्चा पतञ्जलि जितनी प्राचीन अवश्य | 'व्याकरणका ही प्रयोजन बतानेकी क्यों आवश्यकता हुई' ऐसी शंकाका समाधान भी पतञ्जलि को करना पडा है - यह बात भी उक्त नतीजेकी पोषक ही है । (३) आदिवाक्यके प्रतिपाद्यके विषयमें जो मतभेद हैं उन समीका समावेश निनोक्त दो प्रकारोंमें हो जाता है - (अ) प्रयोजनादित्रयका प्रतिपादन । (ब) अनुबन्धचतुष्टयका प्रतिपादन । (अ) प्रयोजन, अभिधेय और सम्बन्ध ये तीन प्रयोजनादित्रय कहे जाते हैं । आदिवाक्यसे इन तीनोंका प्रतिपादन गौणमुख्यभावसे अनेक प्रकारसे आचार्योंने बताया है । उनमें से मुख्य प्रकार ये हैं - १ शास्त्र के प्रयोजनका प्रतिपादन । २ अभिधेयके प्रयोजनका प्रतिपादन । ३ अभिषेय और प्रयोजनका साक्षात् प्रतिपादन तथा सम्बन्धका अर्थात् । ४ प्रयोजनादित्रयका प्रतिपादन । ५ प्रयोजन और सम्बन्धका प्रतिपादन । ६ शब्दतः शास्त्रके प्रयोजनका और अर्थतः अभिधेयका, अभिधेयके प्रयोजनका तथा सम्बन्धका प्रतिपादन । इन मतोंकी विशेषता और उनके माननेवालोंका वर्णन इस प्रकार है १ - कुमारिल के मतसे आदिवाक्यमें शास्त्रके प्रयोजनका वर्णन होता हैं । सम्बन्ध आक्षेपलम्य है जो कि शास्त्र और प्रयोजनका साध्यसाधनभावरूप है । शिष्यप्रश्नानन्तर्यादि अन्य सम्बन्ध नहीं । यही मत शान्त र क्षित को ( वादन्याय पृ० १) और अष्ट शती १. "कानि पुनः शब्दानुशासनस्य प्रयोजनानि” इत्यादि पृ० १६ । २. पु० ३७ । ३. (१) शिष्यप्रनानन्तर्यरूप संबंधकी कल्पना माठरने और गौडपाद ने सांख्य का रि का की अपनी अपनी बुद्धिमें की है। पूज्यपादने सर्वा मं सिद्धि में भी वैसी ही कल्पना की है। (२) गुरुपर्वक्रमसम्बन्ध की कल्पना नन्दी सूत्र के प्रारम्भमें है औौर किसी भी मांसकने भी की है- व्यायरता० लो० २४ । सांप का रिका के अन्तमें भी गुरुवर्यक्रम है। (३) क्रियानन्तर्यरूपसम्बन्ध भी कहीं कहीं देखा जाता है - शांकरभाष्य० सू० १ । तत्त्ववै० १.१ । न्यायरता० लो० २२ । शास्त्रवा० का० १ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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