SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पृ० ११. पं० १० ] टिप्पणानि । ( का० १) में अकलंक को और तस्वार्थ श्लोका वार्तिक विद्यानन्द को मान्य है । २ - कुमारि लादि के अनुसार आदिवाक्यसे शाखके प्रयोजनका प्रतिपादन होता है । किन्तु धर्मोत्तर ने कहा कि आदिवाक्यमें शास्त्रका प्रयोजन नहीं किन्तु शासके अभिधेयका प्रयोजन कहना चाहिए; क्यों कि वही बात श्रोताको ग्रन्थमें प्रवृत्ति कराएगी । ग्रन्थके अमिघेयादि सामर्थ्यलम्य हैं। - न्यायबि० टी० पृ० १ - ३ । यही मत सन्मति तर्कटी का कार अभय देवे और प्रस्तुत ग्रन्थकार शान्त्या चार्य का 1 ३ - इस विषय में तीसरा मत न्या य मंजरी में ( पृ० ६) जयन्त भट्ट का है कि आदिवाक्य से प्रधानरूपसे प्रकरणके प्रयोजन और अभिधेयका कथन होता है । सम्बन्ध आक्षेपलम्य है । यही मत कमल शील ( तत्त्वसं० पृ० २ ) हरिभद्र ( न्यायप्र० वृ० पृ० ९ शी ला ङ्क ( सूत्रकृ० पृ० ४ ), सिद्धर्षि (न्याया० टि० पृ० ७-८ ) आदिको मान्य है । ? ४ - उपर्युक्त प्रायः सभी मतोंमें सम्बन्धको आक्षेपलभ्य माना गया है । किन्तु आचार्य हरिभद्र शास्त्र वार्ता स मुच यो दि में प्रयोजनादित्रयका प्रतिपादन आदिवाक्यमें मानते हैं । १३१ ( पृ० २. पं० ३३ ) में वाचस्पति, अनन्तवीर्य, प्रभा चन्द्र और वादी दे व सूरि का भी यही मत है'। ५ - पदार्थ धर्म संग्रह के टीकाकार श्रीधर के मतसे आदिवाक्य प्रयोजन और सम्बन्ध का प्रतिपादन करता है । -कंदली पृ० ३ । ६ - उपर्युक्त सभी मतोंसे विलक्षण मत हेतु बिन्दु टी का कार अर्च ट का है । उन्होंने शाब्दन्यायके अनुसार आदिवाक्यका प्रतिपाच प्रकरणका प्रयोजन माना और आर्थन्यायके अनुसार प्रतिपाच प्रकरणका अभिधेय, अभिधेयका प्रयोजन और सम्बन्ध माना है । - हेतुबिन्दुटी० पृ० १, ३ । इस प्रकार प्रयोजनादित्रयके विषयमें जो नाना प्रकारके मत हैं उन्हींमेंसे कुछका दिग्दर्शन ऊपर कराया है। (ब) अधिकारी, प्रयोजन, अभिधेय और सम्बम्ध ये अनुबन्ध चतुष्टय हैं 1 आचार्य शंकर ने शास्त्रके प्रारम्भमें अनुबन्ध चतुष्टयकी व्यवस्था की है। उन्हींका अनुकरण करके प्रायः सभी वेदान्त ग्रन्थोंमें यही प्रथा देखी जाती है । इस अनुबन्ध चतुष्टयमें प्रयोजनादित्रयके अतिरिक्त अधिकारीका वर्णन भी होता है । प्राचीन ग्रन्थोंमें अधिकारीका वर्णन करनेकी प्रथा रही उसीको शंकराचार्य ने अनुबन्धचतुष्टयमें स्थान दिया ऐसा मानना चाहिए । इस प्रकार भिन्न भिन्न आचार्योंके मतसे आदि वाक्यका प्रतिपाद्य क्या होना चाहिए इसका संक्षिप्त वर्णन हुआ। अब हम उसके प्रयोजनके विषय में नाना प्रकारके मतों को देखें । १. सम्मतिटीका पृ० १६९ । २. शास्त्रवा० का० १ । अनेकान्त० टी० पृ० ७ । योग ० डी० का० १ । तस्थार्थटी० पृ० ११ । ३. तात्पर्य० पृ० ३ । सिद्धिवि० टी० पृ० ४ । प्रमेयक० पृ० ३ | न्यायकु० पृ० २१ । स्याद्वादर० पृ० ७. पं० २१ । ४. नन्दी सूत्रके प्रारम्भका परिषदका वर्णन, न्यायवा० पृ० २ इत्यादि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy