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________________ पृ०४६. पं० २७] टिप्पणानि। २०७ संतति या संतान एक वस्तु नहीं किन्तु काल्पनिक है, अवस्तु है । अर्थात् अनुयापि कोई जीव द्रव्य संसारमें वस्तुभूत नहीं, काल्पनिक है । और ऐसे अनेक सर्वथा पृथभूत काल्पनिक संतान संसारमें विद्यमान हैं जिन्हें हम नाना नामोंसे पुकारते हैं। जैन दार्शनिकोंका कहना है कि वस्तुभूत एकत्वका यदि मिव किया जाय अर्थात अनुयापि जीव द्रव्यका निहव किया जाय तब संतानकी ही घटना नहीं हो सकती है। संतानकी घटना प्रतीत्यसमुत्पादके बल पर अर्थात् कार्यकारणभावके बल पर की जाती है । पर कार्योत्पत्तिके लिये यह आवश्यक है कि कारण, कार्यके कालमें भी मौजूद रहे। क्षणिकवादमें ऐसा संभव नहीं। यदि समसामयिकोंमें सव्येतर गोश्रृंगवत कार्यकारणभाव बाधित मानकर कारणकी स्थिति कार्यकालमें न मानी जाय तो कारणको पर्वकालमें और कार्यको उत्तर कालमें मानना होगा । किन्तु प्रतिनियत पूर्वभावी वस्तुको ही प्रतिनियत उत्तरभाषिकार्यका कारण मानने के लिये अर्थात् प्रतिनियत वस्तुओंमें ही कार्यकारणभाव माननेके लिये यह आवश्यक हो जाता है कि उन पूर्वापरभावि कारण और कार्यमें अन्यकी अपेक्षा अतिशय या प्रत्यासत्तिविशेष माना जाय अन्यथा कार्यकारणभावकी व्यवस्था हो नहीं सकती । सब सबका कार्य या कारण हो जायगा । वह अतिशय या प्रसासत्ति और कुछ नहीं किन्तु कपंचिदैक्य ही है अर्थात् द्रव्य ही है। पृ० ४५. पं० २६. 'जन्मादौ तुलना-"प्राणिनामा चैतन्यं चैतन्योपादानकारणक चिद्विवर्तत्वात् मध्यचैतन्यविवर्तवत् ।" अष्टस० पृ० ६३ । पृ० १५. पं० २७. 'अभ्यासपूर्षिको तुलना- "पूर्वाभ्यस्तस्मृत्यनुबन्धाजातस्य हर्षमयशोकसंप्रतिपचे। प्रेत्याहाराभ्यासकृतात् स्तन्याभिलाषः ।" न्यायसू० ३.१.१९, २२ । न्यायमं० वि० पृ० १६९ । बृहती पृ० २०७। तत्त्वसं० ५० पृ० ५३२ । प्रमेयक० पृ० ११९ । न्यावकु० पृ० ३४७ । पृ० १६. पं० १. 'अर्थ' यहाँ से लेकर पं० १९ पर्यन्त शब्दशः प्रमाणवार्तिकालंकारके पृ० ६७ से उद्धृत है। पृ० १६.५० १. कार्यकारणभाव:' कार्यकारणभाव व्यवस्थित नहीं हो सकता है इस बातका समर्थन मर्तृहरिने मी किया है । देखो वाक्यप० १.३२ से । भर्तृहरि के इस मतका खण्डन धर्म की र्ति ने किया है -हेतुबिन्दु पृ० १५३ । तुलना-प्रमाणवा० ३.३३-३७ । तत्त्वसं० का० १४६०-१४६२, १४७५-७७ । तत्त्वार्थश्लो० पृ० १४९ । अष्टश० अष्टस० पृ० ७१-७२ । सन्मति० टी० पृ० ५०, ७० । प्रमेयक० पृ० ११८, ५१३ । पृ० ४६..पं० २०. 'नच' यह पंक्ति गधमें है। किन्तु पयरूपसे छपी है । 'चेतसं' के बाद का पूर्णविराम तथा अवतरणचिह निकाल देना चाहिए। यहाँ से लेकर आगेका भाग प्रमाणवार्तिकालंकार पृ० १०५ से उद्धृत है।। पृ०१६. पं० २७. 'अपूर्वोत्पनख' प्रमाणवा० अलं० पृ० १०६ । । १. मातमी० का० २९। २. अष्टशती का० २९ । न्यायकु. पृ०९। Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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