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________________ प्रस्तावना। बौद्ध तर्कशास्त्रमें वादशास्त्रका जो विकसित रूप देखा जाता है उसकी पूर्वभूमिका जैन आगम और बौद्धपिटकों में मौजूद है । उपनिषदोंमें वादविवाद तो बहुतेरे हैं किन्तु उन वादविवादोंके पीछे कोनसे नियम काम कर रहे हैं इसका जिक्र नहीं । अतएव बादविद्याके नियमोंका प्राचीन रूप देखना हो तो जैनागम और बौद्ध पालि त्रिपिटक ही की शरण लेनी पडती है । इसीसे वाद और वादशासके पदार्थोंके विषयमें जैनागमका आश्रयण करके कुछ लिखना अप्रस्तुत न होगा। ऐसा करनेसे यह ज्ञात हो सकेगा कि वादशास्त्र पहिले कैसा अव्यवस्थित था और किस तरह बादमें व्यवस्थित हुआ । तथा जैनदार्शनिकोंने अपने ही आगमगत पदार्थो से क्या छोडा और क्या किस रूपमें कायम रखा । कथासाहित्य और कथापद्धतिके वैदिक, बौद्ध और जैनपरंपरागत विकासकी रूपरेखाका चित्रण पं० सुखलालजीने विस्तारसे किया है । विशेष जिज्ञासुओंको उसीको देखना चाहिए । प्रस्तुतमें जैनभागमको केन्द्रमें रखकर ही कथा या वादमें उपयुक्त ऐसे कुछ पदार्थोका निरूपण करना इष्ट है। श्रमण और ब्राह्मण अपने अपने मतकी पुष्टि करनेके लिये विरोधिओंके साथ वाद करते हुए और युक्तिओंके बलसे प्रतिवादीको परास्त करते हुए बौद्धपिटकोंमें देखे जाते हैं। जैनागममें भी प्रतिवादिओंके साथ हुये श्रमणों, श्रावको और स्वयं भगवान् महावीरके वादोंका वर्णन आता है। उपासकदशांगमें गोशालकके उपासक सद्दालपुत्तके साथ नियतिवादके विषयमें हुए भगवान् महावीरके वादका अत्यंत रोचक वर्णन है- अध्य० ७ । उसी सूत्रमें उसी विषयमें कुंडकोलिक और एक देवके बीच हुए वादका भी वर्णन है - अ०६। जीव और शरीर भिन्न हैं इसविषयमें पार्थानुयायी केशीश्रमण और नास्तिक राजा पएसीका वाद रायपसेणइय सूत्रमें निर्दिष्ट है । ऐसा ही वाद बौद्धपिटकके दीघनिकायमें पायासीसुत्तमें मी निर्दिष्ट है। सूत्रकृतांगमें आर्य अबका अनेक मतवादिओंके साथ नानामन्तव्योंके विषयमें जो वाद हुआ है उसका वर्णन है-सूत्रकृतांग २.६ । भगवतीसूत्रमें लोककी शाश्चतता और अशाश्वतता, सान्तता और अनन्तताके विषय में जीवकी सान्तता, अनन्तता, एकता, अनेकता आदिके विषयमें; कर्म खकृत है, परकृत है कि उभयकृत हैक्रियमाण कृत है कि नहीं; इत्यादि विषयमें भगवान महावीरके अन्यतीर्थिकोंके साथ हुए वादोंका तथा जैन श्रमणोंके अन्यतीर्थिकोंके साथ हुए वादोंका विस्तृत वर्णन पदपदपर मिलता है - देखो स्कंधक, जमाली आदिकी कथाएँ। उत्तराध्ययनगत पार्थानुयायी केशी-श्रमण और भगवान् महावीरके प्रधान शिष्य गौतमके बीच हुआ जैन-आचारविषयक वाद सुप्रसिद्ध है - अध्ययन-२३ । ___ भगवतीसूत्रमें भी पार्थानुयायिओंके साथ महावीरके श्रावक और श्रमणोंके वादोंका जिक्र अनेक स्थानोंपर है-भगवती १.९:२.५,५.९,९.३२ । पुरातत्त्व २.३. में 'कथापद्धतिर्नु स्वरूप भने तेना साहित्यनुं दिग्दर्शन' तथा प्रमाणमीमांसाभाषा टिप्पण पृ०१०८-१२४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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