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________________ आगमचर्षा । (आ) लोकोत्तर आगममें जैनशास्त्रोंका समावेश है। लौकिक आगमोंके विषयमें कहा गया है कि अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवोंने अपने स्वच्छन्दमति - विकल्पोंसे बनाये हैं । किन्तु लोकोत्तर - जैन आगमके विषयमें कहा है कि वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी पुरुषोंने बनाये हैं । आगमके भेद एक अन्य प्रकारसे भी किये गये हैं- जैसे (१) आत्मागम । (२) अनन्तरागम । (३) परंपरागम । सूत्र और अर्थकी अपेक्षासे आगमका विचार किया जाता है। क्योंकि यह माना गया है। कि तीर्थकर अर्थका उपदेश करते है जब कि गणधर उसके आधारसे सूत्रको रचना करते हैं अत एव अर्थरूप आगम स्वयं तीर्थकरके लिये आत्मागम और सूत्ररूप आगम गणधरोंके लिये आत्मागम है । अर्थका मूल उपदेश तीर्थकर का होनेसे गणधरके लिये वह आत्मागम नहीं किन्तु गणधरोंको ही साक्षात् लक्ष्यकरके अर्थका उपदेश दिया गया है अत एव अर्थागम गणघरके लिये अनन्तरागम है गणधरशिष्योंके लिये अर्थरूप आगम परंपरागम है क्योंकि तीर्थकर से गणधरोंको प्राप्त हुआ और गणधरोंसे शिष्योंको । सूत्ररूप आगम गणधर शिष्योंके लिये अनन्त - रागम है क्योंकि सूत्रका उपदेश गणधरोंसे साक्षात् उनको मिला है। गणधरशिष्योंके बादमें होनेवाले आचायोंके लिये सूत्र और अर्थ उभयरूप आगम परंपरागम ही है - तीर्थकर गणधर गणधर शिष्य गणधर शिष्यशिष्य आत्मागम, अर्थागम सूत्रागम x Jain Education International x अनन्तरागम, x अर्षाणम सूत्रागम X परंपरागन X आदि मीमांसकके सिवाय सभी दार्शनिकोंने आगमको पौरुषेय ही माना है । और समीने अपने अपने इष्ट पुरुषको ही आप्त मानकर अन्यको अनाप्त सिद्ध करनेका प्रथम किया है । अन्ततः समीको दूसरोंके सामने आगमका प्रामाण्य अनुमान और युक्तिसे आगमोंक बातोंकी संगति दिखाकर स्थापित करना ही पडता है। यही कारण है कि निर्युक्तिकारने आगमको स्वयंसिद्ध मानकर मी हेतु और उदाहरणकी भावश्यकता, आगमोक्त बातोंकी सिद्धिके लिये स्वीकार की है - X अर्थागम सूत्रागम, अर्थागम "जिणवयणं सिद्धं चैव भण्णय कत्थई उदाहरणं । मासा उ सोयारं हेऊ वि कहिंचि भण्णेजा ॥" दश० नि० ४९ । किस पुरुषका बनाया हुआ शास्त्र आगमरूपसे प्रमाण माना जाय इस विषयमें जैनोंने अपना जो अभिमत आगमिककालमें स्थिर किया है उसे भी बता देना आवश्यक है । सर्वदा यह तो संभव नहीं कि तीर्थप्रवर्तक और उनके गणधर मौजुद रहें और शंकास्थानोंका समाधान करते रहें । इसी आवश्यकतामेंसे ही तदतिरिक्त पुरुषोंको मी प्रमाण माननेकी परंपराने जन्म For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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