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________________ प्रस्तावना । ७९ ( आ ) प्रायः साधर्म्यापनीत के उदाहरण हैं- जैसा गौ है वैसा गवय है, जैसा गवय है वैसा गौ है । (इ) सर्वसाधर्म्यापनीत - वस्तुतः सर्वसाधर्म्यापमान हो नहीं सकता है फिर भी किसी व्यक्तिकी उसीसे उपमा की जाती है ऐसा व्यवहार देखकर उपमान का यह मेद भी शास्त्र, कारने मान्य रखा है । इसके उदाहरण बताये हैं कि - अरिहंतने अरिहंत जैसा ही किया'चक्रवर्तीने चक्रवर्ती जैसा ही किया इत्यादि । २ वैधम्योपनीत भी तीन प्रकारका है - ( अ ) किश्चिद्वैधर्म्य. (आ) प्रायो वैधर्म्य (इ) सर्ववैध ( अ ) किञ्चिद्वैधर्म्य का उदाहरण दिया है कि जैसा शाबलेय है वैसा बाहुलेय नहीं । जैसा बाहुलेय है वैसा शाबलेय नहीं । ' ( आ ) प्रायोवैधर्म्य का उदाहरण है जैसा वायस है वैसा पायस नहीं है । जैसा पायस है वैसा वायस नहीं है। (इ) सर्ववैधर्म्य - सब प्रकारसे वैधर्म्य तो किसीका किसीसे नहीं होता । अत एव वस्तुतः यह उपमान बन नहीं सकता किन्तु व्यवहाराश्रित इसका उदाहरण शास्त्रकारने बताया है । इसमें खकीयसे उपमा दी जाती है - जैसे नीचने नीच जैसा ही किया, दासने दास जैसा ही किया । इत्यादि । शास्त्रकारने सर्ववैधर्म्यका जो उक्त उदाहरण दिया है उसमें और सर्वसाधर्म्यके पूर्वोक्त उदाहरणमें कोई भेद नहीं दिखता । वस्तुतः प्रस्तुत उदाहरण सर्वसाधर्म्यका हो जाता है । न्यायसूत्रमें उपमानपरीक्षामें पूर्वपक्षमें कहा गया है कि अत्यन्त मायः और एकदेशसे जहाँ ras उपमान प्रमाण हो नहीं सकता है । इत्यादि । यह पूर्वपक्ष अनुयोगगत साधम्योपमानके तीन भेद की किसी पूर्वपरंपराको लक्ष्यमें रख कर ही किया गया है यह उक्त सूत्रकी व्याख्या देखनेसे स्पष्ट हो जाता है। इससे फलित यह होता है कि अनुयोगका उपमान वर्णन किसी प्राचीन परंपरानुसारी हैं। .. (५) आगमचर्चा | अनुयोगद्वारमें आगमके दो भेद किये गये हैं (अ.) लौकिक ( आ ) लोकोत्तर | (अ) लौकिक आगममें जैनेतर शास्त्रोंका समावेश अभीष्ट है जैसे महाभारत, रामायण, वेद आदि और ७२ कलाशास्त्रों का समावेश भी उसीमें किया है । १ " जहा गो तहा गवओ, जहा गवभो तहा गो ।” २ " सव्वसाहम्मे ओवम्मे नत्थि, तहावि तेणेव तस्स ओवम्मं कीरह जहा अरिहंतेहिं अरिहंतसरिसं कयं" इत्यादि - "जहा सामले न तहा बाहुलेरो, जहा बाहुलेरो न तहा सामलेरो ।” ४ " जहा arrer न तथा पायसो, जहां पायलो न तहा वायसो ।" ५ " सव्वषेहम्मे ओवम्मे नत्थ तावि तेणेव तस्स ओवम्मं कीरह, जहा णीपण णीअसरिसं कथं, दासेण दाससरिसं कथं ।" इत्यादि । ६ देखो, टिप्पण- पृष्ठ २२२-२२३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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