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________________ प्रस्तावना । ८१ लिया और गणधरप्रणीत आचारांग आदि अंगशास्त्रोंके अलावा स्थविरप्रणीत अन्यशास्त्र मी आगमान्तर्गत होकर अंगबाह्यरूपसे प्रमाण माने जाने लगे - "सुतं गणधरकथिदं तहेव पन्तेयबुद्धकथिदं च । सुदवलिणा कथिदं अभिष्णदसपुष्वकथिदं चे ॥" इस गाथा के अनुसार गणधरकथित के अलावा प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और दशपूर्वीके द्वारा कथित भी सूत्र आगम में अन्तर्भूत है । प्रत्येकबुद्ध सर्वज्ञ होनेसे उनका वचन प्रमाण है । जैन परंपरा के अनुसार अंगबाह्य ग्रन्थोंकी रचना स्थविर करते हैं। ऐसे स्थविर दो प्रकारके होते हैं। संपूर्ण श्रुतज्ञानी और कमसे कम दशपूर्वी । संपूर्ण श्रुतज्ञानीको चतुर्दशपूर्वी श्रुतकेबली कहते हैं । श्रुतवली गणधरप्रणीत संपूर्ण द्वादशांगीरूप जिनागमके सूत्र और अर्थके विषयमें निपुण होते हैं । अत एव उनकी ऐसी योग्यता मान्य है कि वे जो कुछ कहेंगे या लिखेंगे उसका द्वादशाङ्गी रूप जिनागमके साथ कुछ भी विरोध हो नहीं सकता। जिनोक्त विषयोंका संक्षेप या विस्तार करके तत्तत्कालीन समाजके अनुकूल ग्रन्थरचना करना ही उनका प्रयोजन होता है। अत एव संघने ऐसे प्रन्थोंको सहज ही में जिनागमान्तर्गत कर लिया है। इनका प्रामाण्य स्वत भावसे नहीं किन्तु गणधरप्रणीत आगम के साथ अविसंवादके कारण है । कसे जैन संघ वीर नि० १७० वर्षके बाद श्रुतकेवलीका भी अभाव होगया और सिर्फ दर्शपूर्वधर ही रहगए तब उनकी विशेषयोग्यताको ध्यान में रखकर जैन संघने दशपूर्वधरप्रथित प्रन्थोंको मी आगममें शामिल कर लिया । इन ग्रन्थोंका भी प्रामाण्य स्वतप्रभावसे नही किन्तु गणधरप्रणीत आगमके साथ अविरोधमूलक है । जैनोंकी मान्यता है कि चतुर्दशपूर्वधर और दर्शपूर्वधर वेही साधक हो सकते हैं जिनमें नियमतः सम्यग्दर्शन होता है'। अतएव उनके ग्रन्थोंमे आगमविरोधी बातोंकी संभावना ही नहीं है । आगे चलकर ऐसे कई आदेश जिनका समर्थन किसी शास्त्रसे नहीं होता है किन्तु जो स्थविरोने अपनी प्रतिभाके बलसे किसी विषय में दी हुई संमतिमात्र हैं, उनका समावेश भी अंगबाह्य आगममें करलिया गया है। इतना ही नही कुछ मुक्तकों को भी उसीमे स्थान प्राप्त हैं । अमीत हमने आगमके प्रामाण्य-अप्रामाण्यका जो विचार किया है वह वक्ताकी दृष्टिसे । अर्थात किस वक्त वचनको व्यवहारमें सर्वथा प्रमाण माना जाय । किन्तु आगमके प्रामाण्य या अप्रामाण्यका एक दूसरी दृष्टिसे मी अर्थात् श्रोताकी दृष्टिसे भी आगमों में विचार हुआ है उसे भी बताना जरूरी है। शब्द तो निर्जीव हैं और सभी सांकेतिक अर्थके प्रातिपादनकी योग्यता रखते हैं अतएव सर्वार्थक भी हैं। ऐसी स्थिति में निश्वयदृष्टि से विचार करने पर शब्दका प्रामाण्य जैसा मीमांसक मानता है स्वतः नहीं किन्तु प्रयोक्ता के गुण के कारण सिद्ध होता है। इतना ही नहीं बल्कि श्रोता या पाठकके गुणदोषके कारण मी प्रामाण्य या अप्रामाण्यका निर्णय करना १ मूलाचार ५.८० । अथधवला टीकामें उद्धृत है पृ० १५३ । मोघनियुक्तिकी टीकामें भी वह उत है पृ० ३ । २ विशेषा० ५५० । बृहत्० १४४ । तस्वार्थ भा० १.२० । सर्वार्थ० १.२० । ३ बृहत्० १३२ । ४ बृहत् १४४ और उसकी पादढीप । विशेषा० ५५० । I न्या० प्रस्तावना ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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