SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ }¢ सिंधी जे न मम्भमा का । भय तीन साडेतीन लाख रुपये खर्च का 1 ये बंगाल निवासियों और जमींदारो इतना बड़ा उदार आर्थिक भोग उस निमित्तसे अन्य किसीने दिया हो वैसा प्रकाशमें नहीं आया । प " अक्टूबर-नवम्बर मासमें उनकी तबियत बिगड़ी हुई और वह भीरे धीरे अधिकाधिक शिविक होती गई । जनवरी, १९४४ के प्रारम्भ में, मैं उनसे मिलनेके लिये फिर कलकत्ता गया । सा. ६ जनवरीकी संध्याको उनके साथ बैठ कर ३ घण्टे पर्यंत ग्रन्थमाला, साईमेरी, जैन इतिहासा सन आदिके सम्बन्धमें खून उत्साहपूर्वक बातचीत हुई। परन्तु उनको मानों अपने जीवनी ढाका मामास हो रहा हो उस प्रकार के बीच बीच में ऐसे उद्गार भी निकालते जाते थे। ५-७ दिन रह करके मैं बंबई आनेके लिये निकला तब वे बहुत ही भावप्रवणतापूर्वक मुझे विदाई देते समय बोले कि "कौन जाने अब फिर अपने मिलेंगे या नहीं ?" मैं उनके इन दुःखद वाक्योंको बहुत ही दबे हुए हृदयसे सुमन और उद्देग धारण करता हुआ उनसे सड़ाके किये अलग हुआ। उसके बाद उनका साक्षात्कार होनेका प्रस ही नहीं माया ५-६ महीने तक उनकी तबियत अच्छी-बुरी चकती रही और अंत काकी (सन् १९४४) ७ वीं तारीखको वे अपना विनश्वर शरीर छोड़ कर परलोक में चले गये। मेरी साहित्योपासनाका महान् सहायक, मेरी क्षुत्र सेवाका महान् पोषक और मेरी कर्तव्य निष्ठाका महान् प्रेरक सहदय पुरुष इस असार संसार में मुझे हृदय बना करके स्वयं महाशून्य में विलीन हो गया। यद्यपि संधीजीका इस प्रकार नाशवान् स्थूल शरीर इस संसारमेंसे विलुप्त हो गया है परन्तु उनके द्वारा स्थापित इस ग्रन्थमालाके द्वारा उनका यशःशरीर, बैंकड़ों वर्षों तक इस संसार में विद्यमान रह करके उनकी कीर्ति और स्मृतिकी प्रशक्षिका प्रभावदर्शक परिचय भावी जनताको सतत देता रहेगा । सिपीजी के सुपुत्रका सत्कार्य सिंगजी वर्गवास जैन साहित्य और जैन संस्कृतिके महार पोषक मररक्षकी जो बड़ी कमी हुई है उसकी तो सहज भावसे पूर्ति नहीं हो सकती है परन्तु मुझे यह देख कर हृदयमें ऊँची भासा और बाबासक आहार होता है कि उनके सुपुत्र श्री राजेन्द्र सिंहजी, श्री नरेन्द्र सिंहजी और भी वीरेन्द्र सिंहजी अपने पिता सुयोग्य संवान है। अतएव ने अपने पिताकी प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि के कार्य अनुरुप भाग ले रहे हैं और पिताकी भावना और प्रवृत्तिका उदारभावसे पोषण कर रहे हैं। सिंपीजी स्वर्गवासके बाद इन बंधुओंने अपने पिताके दान-पुण्यनिमित्त अजीमगंज इमादि स्थानोंमें कगभग ५०-६० हजार रुपये खर्च किये थे। उसके बाद थोड़े ही समयमें सिंघीजीकी वृद्धमाताका भी वर्गवास हो गया और इसलिये अपनी इस परम पूजनीया दादीमाके पुण्यनिमित्त भी इन बन्धुमने ७०-७५ हजार रुपयोंका व्यय किया । 'सिंधी जैन ग्रन्थमाला' का पूरा भार तो इन सिंधी बन्धुमने पिताजीद्वारा निर्धारित विचारानुसार, पूर्ण उत्साहसे अपने सिर के ही लिया है और इसके अतिरिक ताके इण्डियन रीसर्च इन्स्टीट्यूटको बंगाली में जैन साहिल प्रकाशित करवाने की दृहिले जी कारकरूपमें ५००० रुपयोंकी प्रारम्भिक मदद दी । सिपीजीके ज्येड चिरंजीव बाबू श्री राजेन्द्र सिंहजीने मेरी कामना और प्रेरणाके प्रेमसे वशीभूत होकर अपने पुण्यश्लोक पिताकी बात इच्छाको पूर्ण करनेके लिए, ५० हजार रुपयोंकी गृहणीय रकम भारतीय विद्याभवनको दान स्वरूप दी और उसके द्वारा कलकत्ताकी उक्त बाहर छाइमेरी खरीद करके भवनको एक अमूल्य साहसिक निधिके रूपमें मेट की है। भवनकी यह अन्य निधि 'बाबू भी बाहादुर सिंहजी सिंधी लाईमेरी' के नाम सदा प्रसिद्ध रहेगी और सिंपीजीके पुण्यकारण की एक बड़ी ज्ञानमया बनेगी। बाबू भी नरेन्द्र सिंहजीने, अपने पिताने बंगालकी सराक जातिके सामाजिक एवं धार्मिक उत्थानकेन जो प्रवृत्ति चालू की थी, उसको अपना लिया है और उसके संचालनका भार प्रमुख रूप से स्वयं से लिया गत (सन् १९४४) नवंबर मासमें कलकत्तामें दिगम्बर समाजकी ओरसे किये गये 'वीरशासन महोत्सव' के प्रसन पर उस कार्यके लिये इन्होंने ५००० रुपये दिये थे तथा क बेवाम्बर समुदायकी भोरसे बांधे जाने वाले "जैन भवन" के लिये ३१००० रुपये दान करके अपनी उदारताकी शुभ भाव की है। भविष्य में 'संधी जैन ग्रन्थमाला' का सर्व आर्थिक भार इन दोनों बन्धुओंने उत्साहपूर्वक स्वीकार कर लेनेकी अपनी प्रशंसनीय मनोभावना प्रकट करके, अपने स्वर्गीय मिठाके इस परम पुनीत यशोमंदिरको उत्तरोत्तर उन्नत स्वरूप देनेका शुभ संकल्प किया है। वास्तु मा०वि० [अ० ई ई.स.१९८ } - जिन विजय सुनि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy