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बाबू भी बहादुर सिंहजी-मरणांजलि । भारम्भसे ही वसहितविक और सक्रिय सहायक है. उनके साथ मीस पोजमाके सम्बन्धमें मैने उपित परामर्श किया और संवत् २०.के वैशाख शुक(मई सन् १९५३) में सिंधीजी कार्यप्रसासेबई भाचे तब, परस्पर मिर्णात विचार-विनिमय करके, इस प्रथमाकाकी प्रकाशनसम्बम्धिनी सर्व व्यवस्था भवनके अधीन की गई। सिंधीजीने इसके अतिरिक्त उस अवसर पर, मेरी प्रेरणासे भवनको दूसरे और हजार रुपयोंकी उदार रकम मी, बी, जिसके द्वारा भवनमें उनके नामका एक 'हॉट' बांधा जाप.और उसमें प्राचीन वस्तुओं तथा चित्र भाविका संग्रह रखा जाय।
भवनकी प्रबंधक समितिने सिंधीजीके इस विधि और उदार दानके प्रतिघोषरूपमें भवन में प्रचलित जैनशान-शिक्षणविभागको स्थायी रूपसे 'सिंघी जैनशास्त्र शिक्षापीठ' के नामसे प्रचलित रखनेका सविशेष निर्णय किया।
प्रन्धमाकाके जनक और परिपालक सिंधीजी, प्रारम्भसे ही इसकी सर्व प्रकारकी व्यवस्थाका भार मेरे अपर छोडकर, वे तो केवल सास इतनी ही माकांक्षा रखते थे कि ग्रन्थमालामें किस तरह अधिकाधिक प्रस्थ प्रकाशित हों और कैसे उनका अधिक प्रसार हो। इस सम्बन्धमें जितना खर्च हो उतना वे बहुत ही उत्साहसे करनेके लिये उत्सुक थे। भवनको प्रन्थमाला समर्पण करते समय उन्होंने मुझसे कहा कि"अबतकतो वर्ष में लगभग २-३ही प्रग्य प्रकट होते रहे हैं परन्तु यदि भाप प्रकाशित कर सकें तो प्रतिमास दो दो प्रन्थ प्रकाशित होते देख कर भी मैं तो मतप्त ही रहूँगा। जब तक आपका और मेरा जीवन हैव तक, जितना साहिब प्रकट करने-करानेकी आपकी इच्छा हो तदनुसार आप व्यवस्था करें। मेरी मोरसे आपको पैसेका थोडासा मी संकोच प्रतीत नहीं होगा।" जैन साहित्यके उद्धारके किये ऐसी उका बाकांक्षा और ऐसी उदार वित्तत्ति रखने वाला दानी और विनम्न पुरुष, मैंने मेरे जीवन में दूसरा
और कोई नहीं देखा। अपनी उपस्थिति में ही उन्होंने मेरे द्वारा ग्रन्थमालाके खाते लगभग ७५००० (पोनेडा) रुपये खर्च किये होंगे । परन्तु उन १५ वर्षोंके बीच में एक बार भी उन्होंने मुझसे यह मही पूण कि कितनी रकम किस प्रम्बके लिये खर्च की गई है या किस प्रन्धके सम्पादनके लिये किसको स्वादिला.गया है.जब जब मैं प्रेस इत्यादिके बिक उनके पास भेजता तब तब, वे वो केवल उनको देख बरीमॉफिसमें बह रकम पुकानेकी रिमार्कके साथ भेज देते। मैं उनसे कभी किसी पिसके बारेमें बातचीत करना चाहता, वो भी वे उस विषय में उत्साह नहीं बताते और इसके बजाय अन्धमाकाकी साइन, बाईप, प्रिंटींग, बाइंडींग, हेजिमादिके बारेमें ये खूब सूक्ष्मतापूर्वक विचार करते रहते और उस सम्बन्ध विचारसे चर्चा किया करते । उनकी ऐसी अपूर्व ज्ञाननिष्ठा और शानभकिने .ही मुझे उनके बेवासमें पर किया और इसलिये मैं वाकिंचित् इस प्रकारकी ज्ञानोपासना करनेमें समर्थ हुआ।
प्रकारसे भवनको अन्यमाला समर्पित करनेके बाद, सिंधीजीकी रूपर बताई हुई उत्कट भाकांक्षा पप बानेले, मेरा प्रस्तुत कार्यके लिये और भी अधिक उत्साह बढा। मेरी शारिरिक विति, इस बाक बहिरवं ममसे प्रतिदिन बहसमाधिक वीवताके साथ क्षीण होती राती है, फिर भी मैंने इस मोमधिक वेगवान् और अधिक विस्तृत बनानेकी रहिसे कुछ योजनाएँ बनानी शुरु की। अनेक मेटे प्रत्य एकसाथ प्रेसमें छपने के लिये दिये गये और दूसरे वैसे अनेक नवीन नवीन ग्रन्थ छपानेके विवेचार लाने लगे। जितने अन्य अब तक कुल प्रकट हुए थे उतने ही दूसरे अन्य एक साथ प्रेसमें पनेपए और उनसे भी पूनी संकपाके प्रन्य प्रेस कॉपीमादिके रूपमें तैयार होने लगे।
इसके बाद पोदेही समयके पीछे-अर्थात् सेप्टेम्बर १९४५ में-भवनके लिये कलकत्ताके एक निपल प्रोसारकी बड़ी कामेरी खरीदने के लिये मैं वहाँ गया। सिंधीजीके द्वारा ही इस प्रोफेसरके साथ बात. पील की गई थी और मेरी प्रेरणासे यह सारी बाईनेरी, जिसकी किंमत ५० हजार रुपये जिवनी मांगी मईबी, सिंधीजीने अपनी मोरसे ही भवनको मेट करनेकी. अतिमहनीय मनोवृत्ति प्रदर्शित की थी। परन्तु उस प्रोफेसरके साथ इसकाईबेरीके सम्बन्ध में योग्य सोदा नहीं हो सका वसिंधीजीने कलकत्ताके शुमतिरखर्गवासी जैन सद्गृहख बाबू पूर्णचन्द्रजी माहरकी बदी काईमेरी ले लेनेके विषय में मुझे अपनी मार दी और इस सम्बन्ध में खयंही योग्य प्रकारसे उसकी व्यवस्था करनेका भार अपने सिर पर लिया।
कत्ता और सारे बंगाल में इस वर्ष भाम-दुर्भिक्षका भयंकर कराड-काल चल रहा था। सिंधीजीने अपने पवनजीमगंज-मुर्शिदाबादवा सरे अनेक स्कों में गरीबोंको मुफ्त और मध्यविचको स्प मराजारों मनचाबविवीर्ण करनेकीदार और नदी यवल्या की थी, जिसके निमित्त उन्होंने उसपर्षों
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