SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 448
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ टिप्पणानि । २५७ पृ० ८१.०१] विषयमें जो परंपरा अच्छी प्रतीत हुई उसने अपनी दृष्टिसे उसका समर्थन किया । इस विचारके प्रकाशमें यदि हम कुमारिल का उपर्युक्त जातिविषयक मत देखें तो कहना होगा कि कुमारिल के ऊपर अनेकान्तवादी जैनों की गहरी छाप है। इसके विपरीत यह कहना कि जैनों ने अपना अ ने कान्त वा द कुमारिल से सीखा यह एक भ्रम होगा । कुमारि छ के पहले मी जैनों में अनेकान्तवाद प्रसिद्ध ही रहा। इसका उदाहरण सन्मति तर्क और न है। सम्मति के निश्चित ही कुमारिलसे पहले की कृति है । तथा न य च क और उसकी टीका भी । क्योंकि उनमें कुमारिल के श्लोक वा र्ति क का कोई उल्लेख नहीं । कुमारिल जैनों के समान अनेकान्तवादको ही पकड कर बैठे नही रहता । यही कारण है कि उसने जातिका अनेकान्तवादी समर्थन करके मी वैशेषिकों की दलीलों को लेकर जातिके वैशेषिक संमत खरूपकी संगति बिठानेका प्रयत्न किया है । इस परसे स्पष्ट है कि कुमारि वस्तुतः अनेकान्तवादी नहीं पर उसे वह पसंद जरूर है । कुमारिल का तो कहना है कि मीमांसा शास्त्रमें खाभिमत पदार्थोंकी स्थापना करके कोई नया तत्वदर्शन स्थिर करना इष्ट नहीं किन्तु लोकप्रसिद्ध पदार्थोंको लेकर ही मीमांसा शास्त्र अपना व्यवहार चला लेता है । अत एव जाति और पंक्तिमें लोकको मेद दिखता है तो हमने भेद बताया है। यदि मेद बाधित मी हो तो भी इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं। इससे भी स्पष्ट है कि कुमारिल ने जातिका जो अनेकान्तवादी वर्णन किया है वह जैनों से उधार लिया है। पदार्थवर्णनमें उसका खास कोई ध्रुवमत नहीं । (५) जैनोंका अनेकान्तात्मक सामान्यवाद । जैन मतानुसार सामान्य दो प्रकारका है । तिर्यग्सामान्य और ऊर्ध्वतासामान्य । दैशिक विस्तार में समानताकी बुद्धिका कारण तिर्यग्सामान्य है जब कि कालिक विस्तारमें समानताकी बुद्धिका कारण ऊर्ध्वतासामान्य है । सामान्य सदृशपरिणतिरूप है। सदृशपरिणतिका मतलब है समान परिणति । अत एव नै या यि क और वैशेषिकों की तरह वह एक नहीं; किंतु प्रत्येक व्यक्ति व पर्यायनिष्ठ होनेसे अनेक है । क्योंकि अनेकमें ही समानताका मान हो सकता है 1 1 एक नहीं । जैन सम्मत द्विविध सामान्य और सांख्या नु सारी प्रकृतिरूप सामान्य में तत्वतः कोई भेद नहीं है । क्योंकि प्रकृति, जैसे अपने अनेक दैशिक कार्यप्रपश्चमें अनुगत होकर रही है वैसे ही वह अपने कालिक परिणामप्रवाहमें भी अनुस्यूत है। इसी कारण से प्रकृति परिणामिनित्य कहलाती है । परिणामदादी वेदान्तीका चिह्न और शब्दाद्वैतीका शब्द सांख्यसम्मत प्रकृतिकी तरह परिणामिनित्य ही है । अत एव वह भी तिर्यग् और ऊर्ध्वतासामान्यकी व्याख्यामें ही आ जाता है। नैयायिकादिसम्मत सामान्य नित्य ही है जबकि जैनसम्मत सामान्य अनित्य भी है। क्योंकि सदृशपरिणति की उत्पत्ति भी उन्हीं कारणोंसें होती है जिन कारणोंसे व्यक्ति व १. "मीमांसकस्तु प्रायेण सर्वत्र जैनोच्छिमोजीति" स्याद्वादर० पृ० ८३३ । २. लोकवा० वन० ३३ से । ३. " इति निगदिवमेोकसिद्धैः पदाथैवहतिरिह शास्त्रे न स्वतन्त्राभ्युपेतैः । भवति च अनख्या जातिपङ्कधादिमेदो, यदि तुम घटतेऽसौ नैव बाधोऽसि कचित् ॥” श्लोकवा० वन ०९७ । म्या• ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy