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________________ प्रस्तावना | ६९ प्रमाणभेदके विषय में प्राचीन कालमै अनेक परंपराएँ प्रसिद्ध रहीं। उनमेंसे चार और तीन मेदोंका निर्देश आगममें मिलता है जो पूर्वोक्त विवरणसे स्पष्ट है । ऐसा होनेका कारण यह है कि प्रमाणचर्चा में निष्णात ऐसे प्राचीन नैयायिकोंने प्रमाणके चार भेद ही माने हैं । उन्हीका अनुकरण चरक और प्राचीन बौद्धोंने मी किया है। और इसीका अनुकरण जैनागमों में भी हुआ है । प्रमाणके तीन भेद माननेकी परंपरा भी प्राचीन है । उसका अनुसरण सांख्य, चरक, और बौद्धोंमें हुआ है। यही परंपरा स्थानांगके पूर्वोक्त सूत्रमें भी सुरक्षित है। योगाचार बौद्धोंने तो दिग्नागके सुधारको अर्थात् प्रमाणके दो भेदकी परंपरा को भी नही माना है और दिमागके बाद भी अपनी तीनप्रमाणकी परंपराको ही मान्य रखा है जो स्थिरमतिकी मध्यान्तविभागकी टीकासे स्पष्ट होता है । नीचे दिया हुआ तुलनात्मक नकशा' उपर्युक्त कथनका साक्षी है १ प्रत्यक्ष २ अनुमान ३ उपमान ४ आगम अनुयोगद्वार भगवती स्थानांग चरकसंहिता न्यायसूत्र व्यावर्तनी Jain Education International " 39 15 उपायहृदय सांख्यकारिका 33 योगाचारभूमिशास्त्र ” अभिधर्मसंगितिशास्त्र," विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि मध्यान्तविभागवृत्ति 19 वैशषिकसूत्र " प्रशस्तपाद दिग्नाग धर्मकीर्ति 39 93 59 19 15 37 19 99 "" 17 13 75 33 , 17 " "3 33 19 35 X x X x X X X X X For Private & Personal Use Only x नकशेसे स्पष्ट है कि अनुयोगद्वारके मतसे प्रत्यक्ष ज्ञान प्रमाण के दो भेद हैं - (अ) इन्द्रियप्रत्यक्ष (आ) नोइन्द्रियप्रत्यक्ष Pre-dinnaga Buddhist Texts: Intro. P. XVII. 19 15 15 "" 33 " (२) प्रत्यक्षप्रमाणचर्चा । हम पहले कह आये हैं कि अनुयोगद्वार में प्रमाण शब्दको उसके विस्तृत अर्थमें लेकर प्रमाणोंका मेदवर्णन किया गया है । किन्तु ज्ञप्ति साधन जो प्रमाण ज्ञान अनुयोगद्वारको अमीष्ट है उसीका विशेष विवरण करना प्रस्तुतमें इष्ट है । अत एव अनुयोगद्वार संमत श्वार प्रमाणोंका क्रमशः वर्णन किया जाता है - "S E=EX x x x x www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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