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________________ प्रस्तावना। चरकसंहितामें भी स्थापनाके विरुद्धमें ही प्रतिस्थापना का निर्देश है "प्रतिस्थापना नाम या तस्या एष परप्रतिक्षायाः प्रतिविपरीतार्थस्थापना" वही ३२। (३) व्यंसक । प्रतिवादीको मोहमें डालनेवाले अर्थात् छलनेवाले हेतुको व्यंसक कहते हैं । लौकिक उदाहरण शकटतित्तिरी है। किसी धूर्तने शकटमें रखी हुई तित्तिरीको देखकर शकटवालेसे छलपूर्वक पूछा कि शकटतित्तिरीकी क्या कीमत है ! शकटवालेने उत्तरदिया तेर्पणालोडिकाजलमिश्रित सक्तु । धूर्तने उतनी कीमतमें शकट और तित्तिरी-दोनों ले लिये । इसी प्रकार वादमें मी प्रतिवादी जो छलप्रयोग करता है वह व्यंसक हेतु है । जैन वादीके सामने कोई कहे कि जिनमार्गमें जीव भी अस्ति है और घट भी अस्ति है तब तो अस्तित्वाविशेषात् जीव और घटका ऐक्य मानना चाहिए । यदि जीवसे अस्तित्व को भिन्न मानते हो तब जीवका अभाव होगा। यह व्यंसक हेतु है । (४) लूषक। व्यंसक हेतुके उत्तरको छूषक हेतु कहते हैं । अर्थात् इससे व्यंसक हेतुसे आपादित भनिष्टका परिहार होता है। ___ इसके उदाहरणमें भी एक धूर्तके छल और प्रतिच्छलकी कथा है । ककडीसे भरा शकट देखकर धूर्तने शाकटिकसे पूछा- शकटकी ककडी खाजानेवालेको क्या दोगे ? उत्तर मिला-ऐसा मोदक जो नगरद्वारसे बहार न निकलसके । धूर्त शकटपर चडकर थोडा थोडा सभी ककडीमें से खाकर इनाम मांगने लगा। शाकटिकने आपत्ति की कि तुमने सभी ककडी तो खाई नहीं । धर्तने कहा कि अच्छा तब बेचना शुरू करो। इतनेमें ग्राहकोंने कहा-'ये सभी ककडी तो खाई हुई है' । सुनकर धूर्तने कहा देखो 'सभी ककडी खाई है' ऐसा अन्य लोग भी खीकार करते हैं । मुझे इनाम मिलना चाहिए। तब शाकटिकने भी प्रतिच्छल किया। एक मोदक नगरद्वारके पास रखकर कहा 'यह मोदक द्वारसे नहीं निकलता । इसे ले लो' । जैसा ककडीके साथ 'खाई है' प्रयोग देखकर धूर्तने छल कियाथा वैसा ही शाकटिकने 'नहीं निकलता' ऐसे प्रयोगके द्वारा प्रतिछल किया । इसी प्रकार वादचर्चामें उक्त व्यंसक हेतुका प्रत्युत्तर लूषक हेतुका प्रयोग करके देना चाहिए । जैसे कि यदि तुम जीव और घटका ऐक्य सिद्ध करते हो वैसे तो अस्तित्व होनेसे समी भावोंका ऐक्य सिद्ध हो जायगा। किन्तु वस्तुतः देखा जाय तो घट और पटादि ये सभी पदार्थ एक नहीं, तो फिर जीव और घट मी एक नहीं। व्यंसक और लूषक इन दोनोंके उक्त दो उदाहरण जो लौकिक कथासे लिये गये हैं वे वाक्छलान्तर्गत हैं । किन्तु द्रव्यानुयोगके उदाहरणोंमें जो बात कही गई है वह वाक्छल नहीं । चरकगत सामान्य छलके उदाहरणको देखते हुए कहा जा सकता है कि इन दोनों हेतुओंके द्रव्यानुयोग विषयक उदाहरणोंको चरकके अनुसार सामान्य छल कहा जा सकताहै, चरकमें सामान्य छलका उदाहरण इस प्रकार है-“सामान्यच्छलं नाम यथा व्याधिप्रशमनायौषध "सा सगरतित्तिरी-वंसगंमि होई नायब्वा।" वही ८८ । 'शकटतित्तिरी' के दो अर्थ है शकटमें रहीहई तित्तिरी और शकटके साथ तित्तिरी। २ तर्पणालोटिकाके दो अर्थ है जलमिश्रित सक्तु और सक्तका मिश्रण करती थी। २ "तटसगवंसग लूसगहेउम्मि य मोयगो य पुणी ।" वही गा०८८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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