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________________ छल जाति । इसका लौकिक उदाहरण दियागया है - किसी असाध्वी स्त्रीने अपने पतिको ऊंटकी लीडिया देकर कहा कि उज्जयिनीमें प्रत्येकका एक रूपया मिलेगा अत एव वहीं जाकर बेचो । मूर्ख पति जब लोभवश उज्जयिनी गया तो उसे काफी समय लग गया । इस बीच उस स्त्रीने अपने जार के साथ कालयापन किया । ९२ यापकका अर्थ टीकाकारोंने जैसा किया है ऊपर लिखा है । वस्तुतः उसका तात्पर्य इतना ही जान पडता है कि प्रतिवादीको समझनेमें देरी लगे वैसे हेतुके प्रयोगको यापक कहना चाहिए । यदि यापकका यही मतलब है तो इसकी तुलना अविज्ञातार्थ निग्रहस्थानयोग्य वाक्यप्रयोग से करना चाहिए । न्यायसूत्रकारने कहा है कि वादी तीन दफह उच्चारणकरे फिर भी यदि प्रतिवादी और पर्वत् समझ न सके तो वादीको अविज्ञातार्थनिग्रहस्थान प्राप्त होता है । अर्थात् न्यायसूत्रकारके मतसे यापक हेतुका प्रयोक्ता निगृहीत होता है । "परिषत्प्रतिवादिभ्यां त्रिरभिहितमपि भविज्ञातमविज्ञातार्थम् ।" न्यायसू० ५.२.९ । ऐसा ही मत उपायहृदय ( पृ० १) और तर्कशास्त्र ( पृ० ८ ) काभी है । चरकसंहितामें विगृह्यसंभाषाके प्रसंगमें कहा है कि " तद्विद्येन सह कथयता स्वाविदीर्घसूत्रसंकुलैर्वाक्यदण्डकैः कथयितव्यम् ।" विमानस्थान अ० ८. सू० २० । इसका भी उद्देश्य मापक हेतुके समान ही प्रतीत होता है। वादशात्रके विकास के साथ साथ यापक जैसे हेतुके प्रयोक्ताको निग्रहस्थान की प्राप्ति मानी जाने लगी यह न्यायसूत्रके अविज्ञात निग्रहस्थानसे स्पष्ट है । तर्कशास्त्र ( पृ० ३९) उपायहृदय ( पृ० १९ ) और न्यायसूत्रमें ( ५.२.१८ ) एक अज्ञान निग्रहस्थान मी है उसका कारण मी यापक हेतु हो सकता है क्योंकि अज्ञान निग्रहस्थान तब होता है जब प्रतिवादी वादीकी बात को समझ न सके । अर्थात् वादीने यदि यापक हेतुका प्रयोग किया हो तो प्रतिवादी शीघ्र उसे नहीं समझ पाता और निगृहीत होता है । इसी अज्ञानको चरकने अविज्ञान कहा है - वही ६५ । । ( २ ) स्थापक । प्रसिद्धव्याप्तिक होनेसे साध्यको शीघ्र स्थापित करदेनेवाले हेतुको स्थापक कहते हैं । इसके उदाहरण में एक संन्यासीकी कथा है', प्रत्येक ग्राममें जाकर उपदेश देता था कि लोकमध्यमें दिया गया दान सफल होता है। पूछने पर प्रत्येक गावमें किसीभागमें लोकमध्ये ताता था और दान लेता था । किसी श्रावकने उसकी धूर्तता प्रकट की। उसने कहा कि यदि उस गांवमें लोकमध्य था तो फिर यहां नहीं और यदि यहां है तो उधर नहीं। इस प्रकार वादचर्चा में ऐसा ही हेतु रखना चाहिए कि अपना साध्य शीघ्र सिद्ध जाय और संन्यासीके वचन की तरह परस्पर विरोध न हो। यह हेतु यापकसे ठीक विपरीत है और सद्धेतु है । चरकसंहिता में वादपदोंमें जो स्थापना और प्रतिस्थापनाका द्वन्द्व है उसमेंसे प्रतिस्थापना की स्थापक के साथ तुलना की जा सकती है। जैसे स्थापक हेतुके उदाहरणमें कहा गया है कि संन्यासीके वचनमें विरोध बता कर प्रतिवादी अपनी बातको सिद्ध करता है उसी प्रकार १" उभामिया य महिला जावगहेडम्म उष्टलिंडाई ।” दशवै० नि० गा० ८७ । जाणण थावगहेऊ उदाहरणं" दशबै० नि० ८७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only २ "लोगस्स www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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