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प्रस्तावना।
आत्मद्रव्य और उसके ज्ञान परिणामको मी भ० महावीरने द्रव्य दृष्टिसे अमिन्न बताया है जिसका पता आचारांग और भगवतीके वाक्योंसे चलता है"जे आया से विचाया,जे विनया से आया। जेण विजाणा से आया।"
आचारांग-१.५.५. "आया भंते ! नाणे अन्नाणे?" गोयमा! आया सिय नाणे सिय अन्नाणे, नाणे पुण नियमं आया।"
भगवती-१२.१०.४६८ ज्ञान तो आत्माका एक परिणाम है जो सदा बदलता रहता है इससे ज्ञानका आत्मासे भेद भी माना गया है । क्यों कि एकान्त अभेद होता तो ज्ञान विशेषके नाशके साथ आत्माका नाश भी मानना प्राप्त होता । इस लिये पर्यायदृष्टिसे आत्मा और ज्ञानका मेद मी है । इस बातका स्पष्टीकरण भगवतीगत आत्माके आठ भेदोंसे हो जाता है । उसके अनुसार परिणामोंके भेदसे आत्माका भेद मानकर, आत्माके आठ भेद माने गये हैं
"काविहा णं भंते आया पण्णता?" "गोयमा! अट्टविहा आया पण्णता । जहादवियाया, कसायाया, योगाया, उवयोगाया, णाणाया, दसणाया, चरित्ताया, वीरियाया ॥"
भगवती-१२.१०.४६७ इन आठ प्रकारोंमें द्रव्यात्माको छोड कर बाकीके सात आत्मभेद कषाय, योग, उपयोग, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य रूप पर्यायोंको लेकर किये गये हैं । इस विवेचनमें द्रव्य और पर्यायोंको भिन्न माना गया है अन्यथा उक्त सूत्रके अनन्तर प्रत्येक जीवमें उपर्युक्त आठ आत्माओंके अस्तित्वके विषयमें आनेवाले प्रश्नोत्तर संगत नहीं हो सकते । प्रश्न-जिसको द्रव्यात्मा है क्या उसको कषायात्मा आदि हैं या नहीं ? या जिसको कषायात्मा आदि हैं उसको द्रव्यात्मा भादि हैं या नहीं। उत्तर-द्रव्यात्माके होने पर यथायोग्य कषायात्मा आदि होते मी है और नहीं भी होते किन्तु कषायात्मा आदिके होने पर द्रव्यात्मा अवश्य होती है । इस लिये यही मानना पडता है कि उक्त चर्चा द्रव्य और पर्यायके भेदको ही सूचित करती है।
प्रस्तुत द्रव्य-पर्यायके भेदाभेदका अनेकान्तवाद भी भगवान महावीरने स्पष्ट किया है यह अन्य आगमवाक्योंसे भी स्पष्ट हो जाता है।
(९) जीव और अजीवकी एकानेकता। एक ही वस्तुमें एकता और अनेकता का समन्वय भी, भगवान् महावीरके उपदेशसे फलितं होता है । सोमिल ब्राह्मणने भगवान् महावीरसे उनकी एकता-अनेकताका प्रश्न किया था । उसका जो उत्तर भ० महावीरने दिया है उससे इस विषयमें उनकी अनेकान्तवादिता स्पष्ट हो जाती है
"सोमिला दव्वट्टयाए एगे अहं, नाणदंसणट्ठयाए दुविहे अहं, पएसट्टयाए अक्खए वि अहं, अव्वए वि अहं, अवट्टिए वि अहं, उवयोगट्टयाए अणेगभूयभावमविए वि अहं।" .
भगवती १.८.१० अर्थात् सोमिल ! द्रव्यदृष्टिसे मैं एक हूँ। ज्ञान और दर्शन-रूप दो पर्यायोंके प्राधान्यसे मैं दो हूँ। कभी न्यूनाधिक नहीं होनेवाले प्रदेशोंकी दृष्टि से मैं अक्षय हूँ अव्यय हूँ अवस्थित हूँ। तीनों कालमें बदलते रहनेवाले उपयोग स्वभावकी दृष्टिसे मैं अनेक हूँ।
भगवती १६...।
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