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________________ $4 द्रव्यपर्यायका भेदाभेद । विस्तारकी ओर हम ध्यान दें तो एक द्रव्यके या अनेक द्रव्योंके क्रमवर्ती नाना पर्यायोंकी ओर हमारा ध्यान जायगा । दोनों परिस्थितिओंमें हम द्रव्योंके किसी ऐसे रूपको देखते हैं जो रूप स्थायी नहीं होता । अतएव उन अस्थायी दृश्यमान रूपोंको पर्याय ही कहना उचित है। इसी लिये आगममें विशेषोंको तथा परिणामोंको पर्याय कहा गया है । हम जिन्हें काल दृष्टिसे परिणाम कहते हैं वस्तुतः वेही देशकी दृष्टिसे विशेष हैं । भगवान् बुद्धने पर्यायको प्राधान्य देकर द्रव्य जैसी त्रैकालिक स्थिर वस्तुका निषेध किया । इसी लिये वे ज्ञानरूप पर्यायका अस्तित्व स्वीकार करते हैं पर ज्ञानपर्यायविशिष्ट आत्मद्रव्यको नहीं मानते। इसी प्रकार रूप मानते हुए भी वे रूपवत् स्थायीद्रव्य नहीं मानते । इसके विपरीत उपनिषदोंमें कूटस्थ ब्रह्मवादका आश्रय लेकरके उसके दृश्यमान विविध पर्याय या परिणामोंको मायिक या अविद्याका विलास कहा है । इन दोनों विरोधी वादोंका समन्वय द्रव्य और पर्याय दोनोंकी पारमार्थिक सत्ताका समर्थन करनेवाले भगवान् महावीरके वादमें है । उपनिषदोंमें प्राचीन सांख्योंके अनुसार प्रकृतिपरिणामवाद है किन्तु आत्मा तो कूटस्थ ही माना गया है । इसके विपरीत भगवान् महावीर आत्मा और जड दोनोंमें परिणमनशीलताका स्वीकार करके परिणामवादको सर्वव्यापी करार दिया है । (क) द्रव्य - पर्यायका मेदाभेद । द्रव्य और पर्यायका भेद है या अमेद ? इस प्रश्नको लेकर भगवान् महावीरके जो विचार हैं उनकी विवेचना करना अब प्राप्त है भगवती सूत्रमें पार्श्वशिष्यों और महावीरशिष्योंमें हुए एक विवादका जिक्र है। पार्श्वशिष्योंका कहना था कि अपने प्रतिपक्षी सामायिक और उसका अर्थ नहीं जानते । तब प्रतिपक्षी श्रमणोंने उन्हें समझाया कि - "आया णे अज्जो ! सामाइए आया णे भज्जो ! सामाइयस्स भट्टे ।" भगवती १.९.७७ अर्थात् आत्मा ही सामायिक है और आत्मा ही सामायिक का अर्थ है । आत्मा द्रव्य है और सामायिक उसका पर्याय । उक्त वाक्य से यह फलित होता है कि गान् महावीरने द्रव्य और पर्यायके अमेदका समर्थन किया था किन्तु उनका अमेदसमर्थन अपेक्षिक है। अर्थात् द्रव्यदृष्टिकी प्रधानतासे द्रव्य और पर्यायमें अभेद है ऐसा उनका मत होना चाहिए क्यों कि अन्यत्र उन्होंने पर्याय और द्रव्यके मेदका भी समर्थन किया है । और स्पष्ट किया है कि अस्थिर पर्यायके नाश होनेपर मी द्रव्य स्थिर रहता है । यदि द्रव्य और पर्यायका ऐकान्तिक अमेद इष्ट होता तो वे पर्यायके नाशके साथ तदभिन्न द्रव्यका भी नाश प्रतिपादित करते । अत एव इस दूसरे प्रसंग में पर्यायदृष्टिकी प्रधानतासे द्रव्य और पर्यायके मेदका समर्थन और प्रथम प्रसंग में द्रव्यदृष्टिके प्राधान्यसे द्रव्य और पर्यायके अभेदका समर्थन किया है। इस प्रकार अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा इस विषयमें भी की है ऐसा ही मानना चाहिए । १ " से नूणं भंते अथिरे पलोहद्द नो थिरे पलोहह, अधिरे भजाइ नो थिरे भज्जइ, सासए बाले बलिय असणं, सालए पंडिए पंडियस अलासचं ? हंता गोषमा ! अविरे पलोइछ जाव पंडियस अलासयं ।" wwwnft-1.9.co. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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