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________________ प्रस्तावना। जीव और अजीवके जो ऊर्ध्वतासामान्याश्रित पर्याय होते हैं उन्हें परिणाम कहा जाता है । ऐसे परिणामोंका जिक्र भगवतीमें तथा प्रज्ञापनाके परिणामपदमें किया गया है परिणाम १ जीवपरिणाम १ अजीवपरिणाम १ गतिपरिणाम-४ १ बंधनपरिणाम-२ २ इन्द्रियपरिणाम-५ २ गतिपरिणाम-२ ३ कषायपरिणाम-४ ३ संस्थानपरिणाम-५ ४ लेश्यापरिणाम-६ १ मैदपरिणाम-५ ५ योगपरिणाम-३ ५ वर्णपरिणाम-५ ६ उपयोगपरिणाम-२ ६ गंधपरिणाम-३ ७ ज्ञानपरिणाम-५+३ ७ रसपरिणाम-५ . ८ दर्शनपरिणाम-३ ८ स्पर्शपरिणाम-८ ९ चारित्रपरिणाम-५ ९ अगुरुलघुपरिणाम-१ १० वेदपरिणाम-३ १० शब्दपरिणाम-२ जीव और अजीवके उपर्युक्त परिणामोंके प्रकार एक जीवमें या एक अजीवमें क्रमशः या अक्रमशः यथायोग्य होते हैं । जैसे किसी एक विवक्षित जीवमें मनुष्य गति पंचेन्द्रियस्व अनन्तानुबन्धी कषाय कृष्णलेश्या काययोग साकारोपयोग मत्यज्ञान मिथ्यादर्शन अविरति और नपुंसकवेद ये सभी परिणाम युगपत् हैं । किन्तु कुछ परिणाम क्रममावी हैं । जब जीव मनुष्य होता है तब नारक नहीं । किन्तु बादमें कर्मानुसार वही जीव मरकर नारक परिणामरूप गतिको प्राप्त करता है । इसी प्रकार वह कभी देव या तियंच मी होता है। कमी एकेन्द्रिय और कमी द्वीन्द्रिय । इस प्रकार ये परिणाम एक जीवमें क्रमशः ही हैं। . . वस्तुतः परिणाम मात्र क्रमभावी ही होते हैं । ऐसा संभव है कि अनेक परिणामोंका काल एक हो किन्तु कोई भी परिणाम द्रव्यमें सदा नहीं रहते । द्रव्य परिणामोंका खीकार और त्याग करता रहता है । वस्तुतः यों कहना चाहिए कि द्रव्य फिर वह जीव हो या अजीव खखपरिणामोंमें कालमेदसे परिणत होता रहता है । इसी लिये वे द्रव्यके पर्याय या परिणाम कहे जाते हैं। विशेष भी पर्याय हैं और परिणाम भी पर्याय हैं; क्यों कि विशेष भी स्थायी नहीं और परिणाम भी स्थायी नहीं । तिर्यग्सामान्य जीवद्रव्य स्थायी है किन्तु एककालमें वर्तमान पांच मनुष्य जिन्हें हम जीवद्रव्यके विशेष कहते हैं स्थायी नहीं । इसी प्रकार एक ही जीवके ऋमिक नारक, तियेच, मनुष्य और देवरूप परिणाम भी स्थायी नहीं । अत एव परिणाम और विशेष दोनों अस्थिरता के कारण वस्तुतः पर्याय ही हैं । यदि दैशिक विस्तारकी ओर हमारा ध्यान हो तो नाना द्रव्योंके एक कालीन नाना पयोयों की ओर हमारा ध्यान जायगा पर काल भगवती १५.४ । प्रज्ञापना पद १३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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