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१४ सप्पादो।" पंचा० ६० । अर्थात् गुण और पर्यायोंमें उत्पाद और व्यय होते हैं अत एव यह मानना पडेगा कि पर्याय दृष्टिसे सत् का विनाश और असत् की उत्पत्ति होती है । जीवका देव पर्याय जो पहले नहीं था अर्थात् असत् था वह उत्पन्न होता है और सत् - विषमान ऐसा मनुष्य पर्याय नष्ट भी होता है।
आचार्यका कहना है कि यद्यपि ये दोनों वाद अन्योन्य विरुद्ध दिखाई देते हैं किन्तु नोंके आश्रयसे वस्तुतः कोई विरोध नहीं। ६८ द्रव्योंका मेद-अमेद।
वाचकने यह समाधान तो किया कि धर्मादि अमूर्त हैं अत एव उन सभी की एकत्र वृत्ति हो सकती है। किन्तु एक दूसरा प्रश्न यह भी हो सकता है कि यदि इन समी की वृत्ति एकत्र है, वे सभी परस्पर प्रविष्ट हैं, तब उन समी की एकता क्यों नहीं मानी जाय ! इस प्रश्नका समाधान आचार्य कुन्दकुन्दने किया कि छहों द्रव्य अन्योन्यमें प्रविष्ट हैं एक दूसरेको अवकाश मी देते हैं, इनका नित्यसंमेलन भी है फिर भी उन- समीमें एकता नहीं हो सकती क्यों कि वे अपने खभावका परित्याग नहीं करते। खभावमेदके कारण एकत्र पत्ति होनेपर भी उन समी का मेद बना रहता है।
धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों अमूर्त हैं और मिन्नावगाह नहीं है तब तीनोंके बजाय एक आकाशका ही स्वभाव ऐसा क्यों न माना जाय जो अवकाश, गति और स्थितिमें कारण हो ऐसा मानने पर तीन द्रव्यके बजाय एक आकाश द्रव्यसे ही काम चल सकता है-ईस शंकाका समाधान भी आचार्यने किया है कि यदि आकाशको अवकाशकी तरह गति और स्थितिमें भी कारण माना जाय तो ऊवंगतिखभाव जीव लोकाकाशके अंत पर स्थिर क्यों हो जाते है ! इस लिये आकाशके अतिरिक्त धर्म-अधर्म द्रव्योंको मानना चाहिए । दूसरी बात यह भी है कि यदि धर्म-अधर्म द्रव्योंको आकाशातिरिक्त न माना जाय तब लोकालोकका विभाग मी नहीं बनेगा।
इस प्रकार खभावमैदके कारण पृथगुपलब्धि होनेसे तीनोंको पृथक् - अन्य सिद्ध करके भाचार्यका अभेद पक्षपाती मानस संतुष्ट नहीं हुआ अत एव तीनोंका परिमाण समान होनेसे तीनोंको अपृथग्भूत भी कह दिया है।
६९ साद्वाद। ___ वाचकके तत्वार्थमें स्याद्वादका जो रूप है वह आगमगत स्याद्वादके विकासका सूचक नहीं है। भगवतीसूत्रकी तरह वाचकने मी भंगोंमें एकवचन आदि वचनमेदोंको प्राधान्य दिया है। किन्तु आचार्य कुन्दकुन्दके प्रन्योंमें सप्तभंगीका वही रूप है जो बादके समी दार्शनिकों में देखा जाता है । यानि भंगोंमें आचार्यने वचनमेदको महत्त्व नहीं दिया है । आचार्यने प्रवचनसारमें (२.२३) अवक्तव्य भंगको तृतीय स्थान दिया है किन्तु पंचास्तिकायमें उसका स्थान चतुर्थ
"गुणपजएसु भाषा उप्पादवये पकुम्वन्ति।"१५। "इदि जिणवरेहिं मणि भणोण्णविल्लूमविरुद्धं ॥"पंचा०६०पंचा
"अण्णोणं पविसंवा दिता मोगासमण्णमण्णस्स ।
मेकंता वियनि सगं समा जबिजहति ॥" पंचा..। पंचा. ९९-१०१। ५पंचा...।
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