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________________ प्रस्तावना। १२५ रखा है (गा०१४)। दोनों ग्रन्थोंमें चार भंगोंका ही शब्दतः उपादान है और शेष तीन भेगोंकी योजना करनेकी सूचना की है । इस सप्तभंगीका समर्थन आचार्यने भी द्रव्य और पर्यायनयके आश्रयसे किया है (प्रवचन २.१९)। ६१० मृर्ता मृर्तविवेक। मूल वैशेषिकसूत्रोंमें द्रव्योंका साधर्म्य-वैधर्म्य मूर्तत्व-अमूर्तत्व धर्मको लेकर बताया नहीं है । इसी प्रकार गुणोंका भी विभाग मूर्तगुण अमूर्तगुण उभयगुण रूपसे नहीं किया है परंतु प्रशस्त पादमें ऐसा हुआ है । अत एव मानना पडता है कि प्रशस्तपादके समयमें ऐसी निरूपण की पद्धति प्रचलित थी। जैन आगमोंमें और वाचकके तत्वार्थमें द्रव्योंके साधर्म्य वैधर्म्य प्रकरणमें रूपि और अरूपि शब्दोंका प्रयोग देखा जाता है । किन्तु आचार्य कुन्दकुन्दने उन शब्दोंके स्थान में मूर्त और अमूर्त शब्दका प्रयोग किया है । इतना ही नहीं किन्तु गुणोंको भी मूर्त और अमूर्त ऐसे विभागोंमें विभक्त किया है। आचार्य कुन्दकुन्दका यह वर्गीकरण वैशेषिक प्रभावसे रहित है ऐसा नहीं कहा जा सकता। आचार्य कुन्दकुन्दने मूर्तकी जो व्याख्या की है वह अपूर्ष तो है किन्तु निर्दोष है ऐसा नहीं कहा जा सकता । उन्होंने कहा है कि जो इंद्रियग्राह्य है वह मूर्त है और शेष अमूर्त है। इस व्याख्याके खीकार करनेपर परमाणु पुद्गलको जिसे स्वयं आचार्यने मूर्त कहा है और इन्द्रियाग्राह्य कहा है अमूर्त मानना पडेगा । परमाणुमें रूप-रसादि होनेसे ही स्कन्धमें वे होते हैं और इसी लिये यह प्रत्यक्ष होता है यदि ऐसा मानकर परमाणुमें इन्द्रियग्राह्यताकी योग्यता का स्वीकार किया जाय तो वह मूर्त कहा जा सकता है । इस प्रकार लक्षणकी निर्दोषता मी घटाई जा सकती है। ६११ पुद्गलद्रव्यव्याख्या।। आचार्यने व्यवहार और निश्चय भयसे पुद्गलद्रव्यकी जो व्याख्या की है. वह अपूर्व है। उनका कहना है कि निश्चयनयकी अपेक्षासे परमाणु ही पुद्गलद्रव्य कहा जाना चाहिए और व्यवहार नयकी अपेक्षासे स्कन्धको पुद्गल कहना चाहिए। पुद्गल द्रव्यकी जब ऐसी व्याख्या की तब पुगलके गुण और पर्यायोंमें मी आचार्यको खभाव और विभाव ऐसे दो भेद करना प्राप्त हुआ। अतएव उन्होंने कहा है कि परमाणुके गुण खाभाविक हैं और स्कन्धके गुण वैभाविक हैं। इसी प्रकार परमाणुका अन्यनिरपेक्ष परिणमन खभाव पर्याय है और परमाणुका स्कन्धरूप परिणमन अन्यसापेक्ष होनेसे विभाव पर्याय है। प्रस्तुतमें अन्यनिरपेक्ष परिणमनको जो खभाव पर्याय कहा गया है उसका अर्थ इतना ही समझना चाहिए कि वह परिणमन कालभिन्न निमित्तकारणकी अपेक्षा नहीं रखता। क्योंकि खयं आ० कुन्दकुन्दके मतसे मी समी प्रकारके परिणामों में काल कारण होता ही है। आगेके दार्शनिकोंने यह सिद्ध किया है कि किसी भी कार्यकी निष्पत्ति सामग्रीसे होती है किसी एक कारणसे नहीं । इसे ध्यानमें रख कर आ० कुन्दकुन्दके उक्त शब्दोंका अर्य करना चाहिए। पंचा. १०१।२ प्रवचन.२.३८,३९। पंचा.. प्रवचन. २.३९। ५लियमसार २६ पंचा. ४४। ५नियमसार २९। नियमसार २७,२८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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