SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाणनिरूपण। 'रूपिणः पुद्गलाः' में अपशब्दका क्या अर्थ है इसका उत्तर- "रूपं मूर्तिः मूर्याश्रयाश्च स्पर्शादय इति ।" (तस्वार्थभा० ५.३ ) इस वाक्यसे मिल जाता है । रूपशब्दका यह अर्थ, बौद्धधर्मप्रसिद्ध नाम-रूपगत रूप' शब्दके अर्थसे मिलता है। वैशेषिक मनको मूर्त मानकर भी रूपादि रहित मानते हैं । उसका निरास 'रूपं मूर्तिः' कहनेसे हो जाता है। ६७. इन्द्रियनिरूपण वाचकने इन्द्रियोंके निरूपणमें कहा है कि इन्द्रियाँ पांच ही हैं। पांच संख्याका ग्रहण करके उन्होंने नैयायिकोंके षडिन्द्रियवाद और सांख्योंके एकादशेन्द्रियवाद तथा बौद्योंके मानेन्द्रियवादका निरास किया है। ६८. अमूर्तद्रव्योंकी एकत्रावगाहना-- एक ही प्रदेशमें धर्मादि समी द्रव्योंका अस्तित्व कैसे हो सकता है! यह प्रश्न आगमोंमें चर्चित देखा नहीं गया । पर वाचकने इसका उत्तर दिया है कि धर्म-अधर्म आकाश और जीवकी परस्परमें वृत्ति और पुद्गलमें उन समीकी वृत्तिका कोई विरोध नहीं क्योंकि वे अमूर्त हैं। ऊपर वर्णित तथा अन्य कई विषयोंमें वा० उमाखातिने अपने दार्शनिक पाण्डिल्यका प्रदर्शन किया है । जैसे जीवकी नाना प्रकारकी शरीरावगहनाकी सिद्धि, (५.१६), अपवर्म और अनपवर्त्य आयुषोंकी योगदर्शन भाष्यका अवलम्बन करके सिद्धि (२.५२ ) इत्यादि । [२] प्रमाणनिरूपण। ६१ पंच ज्ञान और प्रमाणोंका समन्वय । इस बातकी चर्चा मैंने पहले की है कि आगमकालमें खतन्त्र जैन दृष्टिसे प्रमाणकी चर्चा नहीं हुई है । अनुयोगद्वारमें ज्ञानको प्रमाण कह कर भी स्पष्ट रूपसे जैनागम प्रसिद्ध पांच शानोंको प्रमाण नहीं कहा है। इतना ही नहीं बल्कि जैन दृष्टिसे ज्ञानके प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो प्रकार होने पर भी उनका वर्णन न करके दर्शनान्तरके अनुसार प्रमाणके तीन या चार प्रकार बताये गये हैं । अत एव खतन्त्र जैन दृष्टिसे प्रमाणकी चर्चाकी आवश्यकता रही । इसकी पूर्ति वाचकने की है । वाचकने समन्वय कर दिया कि मत्यादि पांच ज्ञान ही प्रमाण हैं। ६२ प्रत्यक्ष-परोक्ष । मत्यादि पांचों ज्ञानोंका मामोल्लेख करके वाचकने कहा है कि ये ही पांच ज्ञान प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो प्रमाणोंमें विभक्त हैं। स्पष्ट है कि वाचकने ज्ञानके आगमप्रसिद्ध प्रत्यक्ष और परोक्ष दो भेदको लक्ष्य करके ही प्रमाणके दो भेद किये हैं । उन्होंने देखा कि जैन आगमोंमें जब ज्ञानके दो प्रकार ही सिद्ध हैं तब प्रमाणके भी दो प्रकारही करना उचित है । अत एव उन्होंने अनुयोग और स्थानांगगत प्रमाणके चार या तीन भेद, जो कि लोकानुसारी हैं उन्हें छोड ही दिया । ऐसा करनेसे ही खतन्त्र जैन दृष्टिसे प्रमाण और पंच ज्ञानका संपूर्ण समन्वय सिद्ध हो जाता है और जैन आगमोंके अनुकूल प्रमाणव्यवस्था भी बन जाती है। "चत्तारि महाभूतानि चतुन्नं च महाभूतानं उपादाय रूपं ति दुविधम्पेतं रूपं एकादसविधेन संगहं गच्छति ।" अभिधम्मस्थसंगह ६.१. से। २ तस्वार्थ० १.१०।३ "मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलानि ज्ञानम् ॥ १॥ तत् प्रमाणे ॥१०॥" तत्वार्थ०१.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy