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________________ २१२ टिप्पणानि । [पृ० ६२, पं० ६प्रमाकरणं उपमानम् । तथाहि-नगरेषु रगोपिण्डस्य पुरुषस्य वनं गतस्य गवयेन्द्रियसनिकर्षे सति भवति प्रतीतिः 'मयं पिण्डो गोसाशः' इति । तदनन्तरं च भवति 'अनेन सहशी मदीया गौः' इति । तत्र अन्वयव्यतिरेकाभ्यां गषयनिष्ठगोसारयज्ञानं करणं गोनिष्ठगवयसारश्यशानं फलम् ।" वेदान्तप० पृ० १७६ । (३) यद्यपि जयन्त ने वृद्ध नै या यि कों के लक्षणकी संगति बतलाई है और मीमांसकों के आक्षेपका उत्तर दिया है। फिर भी अतिदेशवाक्यको उपमान माननेवाले वृद्ध नै या यिक ही रहे हैं यह मानना पडेगा । क्योंकि उसोतकरसे लेकर सभी नै या यि कों ने-जिन्हें जयन्त 'अवतन' कहके पुकारता है-तथा जयन्त ने भी उपमानके नये लक्षणको ही अपनाया है । और उसीका समर्थन किया है । इन नवीन नै या यि कों के द्वारा उक्त न्या य सूत्र की व्याख्या ऐसी की गई है- "अद्यतनास्तु व्याचक्षते-श्रुतातिदेशवाक्यस्य प्रमातुर प्रसिद्ध पिण्डे प्रसिद्धपिण्डसारूप्यवानमिन्द्रियज संज्ञासंक्षिसम्बन्धप्रतिपत्तिफलमुपमानम्"- न्यायमं० वि० पृ० १४२ । अर्थात् इन नवीनोंके मतमें अतिदेशवाक्यस्मृतिसापेक्ष साखप्यप्रत्यक्ष उपमान प्रमाण है । प्रस्तुतमें इतना ध्यान रखना चाहिए कि नवीन नै या यिक और मीमांसक संमत उपमानके स्वरूपमें वस्तुतः मेद नहीं है किन्तु दोनोंके मतसे उपमान प्रमाणका कार्य- फल भिन्न भिन्न है अत एव 'कार्यभेदात् कारणभेदः' इस न्यायसे दोनोंको भिन्न भिन्न रूपसे लिया गया है। दोनोंके फलभेद - कार्यभेदकी चर्चा आगे की जायगी। दूसरी बात यह भी है कि नै या यि क और मीमांसकों में सादृश्यक खरूपके विषयमें मी मौलिक मतभेद है अत एव सादृश्यज्ञान दोनोंके मतसे भिन्न प्रकारका ही होगा । अत एव दोनोंके मतसे सादृश्यज्ञान उपमान होते हुए भी उपर्युक्त प्रकारसे मतभेद होनेके कारण दोनोंके मतोंको अलग अलग ही प्रस्तुतमें गिना है। . (ई) जैनों के अनु योग द्वार सूत्रमें 'औपन्य' प्रमाणका निरूपण है । अनु योगद्वार की शैली यह है कि वस्तुके भेदकथन द्वारा उसका खरूप बताना। अत एव उसमें उपमा प्रमाणके भेद तो गिना दिये किन्तु लक्षण नहीं 'बतलाया किन्तु निर्दिष्ट साधोपनीत और वैधोपनीत ऐसे उपमाप्रमाणके दो भेदोंसे अंदाजा करें तो कहा जा सकता है कि अनु योग द्वार कारके मतसे सादृश्य-वैसादृश्यज्ञान उपमान प्रमाण है। न्याय सूत्र में उपमानपरीक्षामें पूर्वपक्षमें कहा गया है कि अत्यन्त, प्रायः और एकदेशसे जहाँ साधर्म्य हो वहाँ उपमान प्रमाण हो नहीं सकता और इन तीनके अतिरिक्त साधर्म्यका अन्य प्रकार नहीं । अत एव उपमान प्रमाण असिद्ध है। किन्तु अनु यो गद्वार में साधर्यो .."समाचया लिलिशिसम्बन्धस्मृत्यनुग्रहे सति लिडपरामशोऽनुमानम्, तर प्रत्यक्षम्, तथाऽगमा. दिवसंस्कारस्पखपेक्षं सारूप्पप्रत्यक्षमुपमानमिति"न्यायवा०२.१.४८। २. भगवतीमें भी उपमान प्रमाणका निरूपण है-शतक ५. उदेशा४१."से किओवम्मे? भोवम्मे दुविहे पण्णते जहा-साहम्मोवणीए महम्मोवणीए " इत्यादि-अनयो०१० २१७। १. "अत्यन्यप्रायैकदेशसाबाबुपमानातिदि"-न्यायसू०२.१.४४ । अत्यवसायम्योपमानम सिध्यति । भवति पथा गौरव गौरिति । पायःसापोदुपमान म सिध्यति नहि भवति यथाऽमहाने महिष इति । एकदेससाघम्बापमान मसिध्यति, सहि सर्वेण सर्व उपमीयते इति"-न्यायमा० । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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