________________
भगवान् महावीर की स्थिति। हो सकती है ! सर्व प्रथम एक और अद्वितीय सत् ही था । उसीने सोचा मैं अनेक हो। सब क्रमशः सृष्टिकी उत्पत्ति हुई है।
- सत्कारणवादियोंमें मी ऐकमत्य नहीं । किसीने जलको, किसीने मायुको, किसीने पहिलो किसीने साकाश को और किसीने प्राणको विश्वका मूल कारण माना है। .. हम समी वादोंका सामान्य तस्व यह है कि विश्व के मूल कारण रूपसे कोई लामामा उप महीं है । किन्तु इन संमी वादोंके विरुद्ध अन्य ऋषिओंका मत है कि इन जन तत्वों में से सधि उत्पन हो नहीं सकती, सर्वोत्पत्तिके मूलमें कोई चेतन तत्स्व कर्ता होना चाहिए। .. पिपलाद ऋषिके मतसे प्रजापतिसे सृष्टि हुई है। किन्तु बृहदारण्यको बासको स्त कारण मानकर उसीमेंसे स्त्री और पुरुषकी उत्पत्तिके द्वारा क्रमशः संपूर्ण विनायी सविसनी गई है। ऐतरेयोपनिषद्में भी सृष्टिक्रममें मेद होने पर भी मूल कारण तो आत्मा ही माना गया है। यही बात तैत्तिरीयोपनिषद्के विषयमें मी कही जा सकती है। किन्तु इसकी विशेषता यह है कि आत्माको उत्पत्तिका कर्ता नहीं बल्कि कारण मात्र माना गया है । अर्थात् अन्यत्र स्पष्ट रूपसे आत्मा या प्रजापतिमें सृष्टिकर्तृत्वका आरोप है जब कि इसमें आत्माको सिर्फ मूल कारण मान कर पंचभूतोंकी संभूति उस आत्मासे हुई है इतना ही प्रतिपाय है । मुण्डकोपनिषदमें जड़ और चेतन समी की उत्पत्ति दिव्य, अमूर्त और अज ऐसे पुरुषसे मानी गई है। यहाँ मी उसे कर्ता नहीं कहा । किन्तु श्वेताश्वतरोपनिषद्में विवाधिप देवाधिदेव रुन्न ईबरको ही जगत्का माना गया है और उसीको मूल कारण भी कहा गया है।
उपनिषदोंके इन वादोंको संक्षिप्तमें कहना हो तो कहा जा सकता है कि किसी के मतसे मस से सत् की उत्पत्ति होती है, किसीके मतसे विश्वका मूल तत्व सत् जड है और कितीत मासे वह सब तत्व चेतन है।
एक दूसरी दृष्टिसे मी कारणका विचार प्राचीन कालमें होता था । उसका पता हमें आतावतरोपनिषद् से चलता है। उसमें ईघरको ही परम तल और आदि कारण सिकरनेके लिये जिन अन्य मतोंका निराकरण किया गया है वे ये हैं:'-१ काल, २ स्वभाव, विति,
पहच्छा, ५ भूत, ६ पुरुष, ७ इन समीका संयोग, ८ भास्मा।
उपनिषदोंमें इन नाना वादोंका निर्देश है अतएव उस समय पर्यन्त इन वादोंका सिर था ही इस बातका खीकार करते हुए भी प्रो० रानडे का कहना है कि "उपनिषदकालीन दार्शनिकोंकी दर्शन क्षेत्रमें जो विशिष्ट देन है वह तो आत्मवाद है।
. "सदेव सोम्येदमन भासीदेकमेवाद्वितीयम् । तदैक माहुरसदेवेदमन भासीदेखमेवारीनीवर। समावसतः सजायत । कुतस्तु खलु सोम्य एवं खादिति होवाच कथमसता सज्जायतेति । सत्वेष सोम्बेदम मासीत् एकमेवाद्वितीयम् तदैक्षत बहुला प्रजावेवेति"-छान्दो०६.२।
२. पदा० ५.५.१। छान्दो० ४.३। कठो० २.५.९.। छान्दो० १.१.१ १.११.५. । ४.३.३ । ७.१२.१। .३ प्रश्नो० १.३-१३। ४ गृहदा० १.४.१-४। ५ऐतरेय १.१-३॥ ६ तैतिरी०२.१। ७मुण्ड० २.१.२५। ८श्वेता० ३.२ ३.९ । ९"काल स्वभावो नियतिरछा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्यर। पंयोग पान स्वास्ममावादामाप्यनीश: मुखदुखहेतोः॥"-श्वेता० १.२। 9. Constructive Survey of Upanishadas, ch. V. P. 246.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org