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शान्त्याचार्य और उनका समय ।
७ कारिका नं० १९ में 'नः' शब्द है। उसकी व्याख्यामें शान्स्याचार्यने 'नः' का अर्थ 'अस्माकम् ' ही किया है । कहीं प्रन्थकारका नाम नहीं दिया । विशेष विवरणमें 'नः का 1 मतलब 'वार्तिककार' शब्दसे बताया है। खोपटीकाकार मूल यदि सूत्ररूप हो तो मूलकारको सूत्रकाररूपसे संबोधित करते हुए प्रायः देखे जाते हैं । प्रस्तुतमें मूलग्रन्थ वार्तिकरूप होने से टीकामें उसके कर्ताको 'वार्तिककार' कहा है। वार्तिककार यदि दूसरे होते तो यह संभव नहीं है कि शान्त्याचार्य उसका नाम न जानते क्योंकि वार्तिक शान्ख्याचार्यके कालकी कृति है इसमें तो संदेह है ही नहीं ।
५ वार्तिककारने सिद्धसेनको तो सूर्य की उपमा दी है (का० १,५७ ) और खुदको चकी (का० ५७ ) । इससे भी यही नतीजा निकलता है कि यह शान्त्या चार्यकी ही कृति होनी चाहिए क्योंकि चन्द्र शान्त होता है, अतएव श्लेषसे शान्त्याचार्यके नामकी सूचना पार्तिककी अंतिम कारिकामें मानी जा सकती है।
इन कारणोंसे जब तक कोई बाधक प्रमाण न मिले वार्तिक के कर्तारूपसे शान्माचार्यको ही मानना उचित है।
५. शान्त्याचार्य और उनका समय ।
शास्याचार्य नामके अनेक श्वेताम्बर आचार्य हुए हैं । उनमेंसे किसने वार्तिक और उसकी पुतिकी रचना की इसका निर्णय करना आवश्यक है । शान्त्याचार्य या शान्तिसूरिके नामसे प्रसिद्ध जिन आचार्योंका पता मैंने लगाया है वे ये हैं
१ थारापद्रगच्छीय शान्ति रि- इन्होंने उत्तराध्ययनसूत्रकी बृहत् टीकाकी रचना की है । उत्तराध्ययनकी टीकाकी प्रशस्ति में स्पष्टरूपसे इन्होंने अपना गच्छ धारापत्र बताया 1 इनका जो चरित्र प्रभावकचरितमें वर्णित है उससे पता चलता है कि उनका गच्छ थारापत्र था, उनके गुरुका नाम विजयसिंह था। वे राजा भोज और कवि धनपालके समकालीन थे । उनकी मृत्यु वि० सं० १०९६ के ज्येष्ठ शुक्र ९ को हुई । प्रभावकचरितमें कहा गया है कि वादिवेताल ऐसा विरुद राजा भोजने शान्माचार्यको दिया था । इन्होंने धनपालकृत तिलकमारीका संशोधन किया है और उत्तराध्ययनटीकाकी रचना की है - प्रभावकारित पृ० १३१ - १३७ ।
२ पूर्णतगच्छीय शान्तिसूरि- तिलकमञ्जरी टिप्पणकी प्रशस्तिमें उसके कर्ता शान्तिसूरिने अपनेको पूर्णतगच्छीय कहा है। अपना परिचय देते हुए कहा है कि मैं मतिमानों में श्रेष्ठ हूँ और बहुशाखको जाननेवाला हूँ ।
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"श्री शान्तिसूरिरिह श्रीमति पूर्णतले, गच्छे वरो मतिमतां बहुशाखवेत्ता । मामलं विरचितं बहुधा विमृश्य, संक्षेपतो परमिदं बुध ! टिप्पनं भो ॥"
१ पसमस्यमाच्य जैनभाण्डागारीयप्रन्धसूची पृ० ८७ ।
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