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टिप्पणानि ।
[ पृ० २७. पं० १५
जैनों ने मी मीमांसकों की तरह अतीन्द्रिय शक्ति का समर्थन किया है। और नै या विक के मतका खण्डन किया है ।
'जैनों के मतसे शक्तिकी कल्पना क्यों आवश्यक है इसे ठीक समझनेके लिये जैन संमत वस्तुस्वरूपको समझना होगा। जैनों के मतसे उत्पाद, व्यय और धौव्ययुक्त वस्तु ही सत् है। धौव्यांशको द्रव्य कहा जाता है। उत्पाद और व्यय - ये पर्याय हैं। वस्तुमें उत्पादशील और विनश्वर अनन्त पर्याय हैं। वे सभी पर्याय अर्थपर्याय और व्यञ्जनपर्यायके अन्तर्गत हैं । वस्तुके अतीन्द्रिय पर्यायोंको अर्थपर्याय कहा जाता है और स्थूल पर्यायोंको व्यञ्जन पर्याय कहा जाता है' । अर्थपर्याय ही शक्तिके नामसे व्यवहृत होते हैं। क्योंकि इन पर्यायोंके कारण ही अर्थ नाना कार्यों के उत्पादनमें समर्थ समझा जाता है । शक्तिमत् - वस्तु अपने व्यञ्जन पर्याय - स्थूलरूपमें ही हमारी इन्द्रियोंका विषय बनती है किन्तु जो उसका सूक्ष्मस्वरूप है - अर्थात् अनन्तसामर्थ्य रूप जो उसका खरूप है उस रूपसे वह हमारे प्रत्यक्षका विषय नहीं अत एव शक्तिको अतीन्द्रिय कहा जाता है ।
यदि इन अर्थपर्यायोंको - शक्तिओंको अनेक माना न जाय तो एक ही वस्तुको अनेक कार्यों में समर्थ माना नही जा सकता । व्यञ्जनपर्याय ही अर्थपर्याय नहीं हो सकते क्योंकी उनका खरूप तो प्रत्यक्ष है किन्तु अर्थपर्यायका बोध तो किसी कार्यको देखकर ही अनुमानसे होता है - स्याद्वादर० पृ० ३०६ |
वस्तु के साथ पर्यायोंका मेदाभेद होने से जैनोंके मतसे शक्तिका पदार्थसे मेदाभेद समझना चाहिए - स्याद्वावर० पृ० ३०६ ।
शक्ति द्रव्यरूपसे नित्य और पर्यायरूपसे अनिक्म है- वही० पृ० ३०४ | शक्तिका कारण पदार्थस्वरूप ही है ।
सांख्य सत्कार्यवादी हैं । अत एव वे कारण को ही शक्तिसंपन्न मानते हैं। कार्यकी अव्यक्तावस्था का ही दूसरा नाम शक्ति हैं । तैलके लिये उपादान तिल है अर्थात् तैलके लिये तिल शक्त है और दूसरा पदार्थ अशक्त है इसका मतलब यही है कि तिलमें ही तैल अव्यक्तावस्थामें है । वस्तुतः तिल और शक्तिका मेद नहीं । शक्ति कारणात्मक है ।
इस विषय में वेदान्त और सां रूय में कोई भेद नहीं । व्यवहारमें जहाँ किसी कारणको किसी कार्यमें शक्त माना जाता है वहाँ शंकराचार्य ने शक्तिको कारणात्मक ही बताया है' ।
१. तस्वार्थग्लो० पृ० ५९-६० | सन्मति० टी० पृ० २५४ । न्यायकु० पृ० १५८ । स्याद्वाद० पृ० २८७ । २. "अर्थव्यञ्जनपर्यायैः शक्तिव्यक्तिरूपैरन तैरनुगतोऽर्थः " -सन्मति० टी० पृ० ४३१ । ३. "यथैव हि सहकारफलादौ रूपादिज्ञानानि रूपादिस्वभावभेदनिबन्धनानि तथैकस्मादपि प्रदीपादेर्भावाद वर्तिकादाहतैलशोषादि विचित्र कार्याणि तावच्छतिभेदनिमित्तकानि व्यवतिष्ठन्ते जन्यथा रूपादेर्नानात्वं न स्यात् ।" स्याद्वादर० पृ० ३०५ । अष्टस० पृ० १८३ । ४. “शक्तिव कारणगता न कार्यस्थान्यक्कवादन्या । न हि सत्कार्यपक्षे कार्यस्याव्यक्तताया अन्यस्यां शक्तौ प्रमाणमस्ति । अयमेव हिं सिकताभ्यस्तिकानां तलोपादानानां मेदो यदेतेष्वेव तैलमनागतावस्थं न सिकतास्थिति ।" - सांख्यत० का० १५ । ५. “शक्तिश्च कारणस्य कार्यनियमार्था करूप्यमाना नान्या नाप्यसती तस्मात् कारणस्यात्मभूवा शक्तिः " - शां० ब्रह्म० २.१.१८ ।
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