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प्रस्तावना।
(१) लोक शाश्वत है ? (२) लोक अशाश्वत है ? (३) लोक अन्तवान् है ! (४) लोक अनन्त है ! (५) जीव और शरीर एक हैं ! (६) जीव और शरीर भिन्न हैं ? (७) मरनेके बाद तथागत होते हैं ? (८) मरनेके बाद तथागत नहीं होते ? (९) मरनेके बाद तथागत होते भी हैं, और नही भी होते ? (१०) मरनेके बाद तथागत न-होते हैं, और न-नही होते हैं !.
इन प्रश्नोंका संक्षेप तीन ही प्रश्नमें है-(१) लोककी नित्यता-अनित्यता और सान्तता-निरन्तताका प्रश्न, (२) जीव-शरीरके मैदाभेदका प्रश्न और (३) तथागतकी मरणोत्तर स्थिति-अस्थिति अर्थात जीवकी नित्यता अनित्यताका प्रश्न' । ये ही प्रश्न भगवान् बुद्धके जमानेके महान् प्रश्न थे । और इन्हींके विषयमें भ० बुद्धने एक तरहसे अपना मत देते हुँए भी वस्तुतः विधायकरूपसे कुछ नहीं कहा। यदि वे लोक या जीवको नित्य कहते तो उनको उपनिषदू-मान्य शाश्वतवादको खीकार करना पडता और यदि वे अनित्य पक्षको खीकार करते तब चावांक जैसे भौतिकवादि संमत उच्छेदवादको स्वीकार करना पडता । इतना तो स्पष्ट है कि उनको शाश्वतवादमें मी दोष प्रतीत हुआ था और उच्छेदवादको भी वे अच्छा नहीं समझते थे। इतना होते हुए भी अपने नये वादको कुछ नाम देना उन्होंने पसंद नहीं किया और इतना ही कह कर रह गये कि ये दोनो वाद ठीक नहीं । अतएव ऐसे प्रश्नोंको अव्याकृत, स्थापित, प्रतिक्षिप्त बता दिया और कह दिया कि लोक शाश्वत हो या अशाश्वत, जन्म है ही, मरण है ही । मैं तो इन्हीं जन्ममरणके विधातको बताता हूँ। यही मेरा व्याकृत है। और इसीसे तुम्हारा भला होनेवाला है । शेष लोकादिकी शाश्वतता आदिके प्रश्न अव्याकृत हैं, उन प्रश्नोंका मैंने कुछ उत्तर नहीं दिया ऐसा ही समझो।
इतनी चर्चासे स्पष्ट है कि भ० बुद्धने अपने मन्तव्यको विधिरूपसे न रख कर अशाचतानुच्छेदवादका ही खीकार किया है । अर्थात् उपनिषन्मान्य नेति नेति की तरह वस्तुखरूपका निषेधपरक व्याख्यान करनेका प्रयत्न किया है। ऐसा करनेका कारण स्पष्ट यही है कि तत्कालमें प्रचलित वादोंके दोषोंकी ओर उनकी दृष्टि गई और इस लिये उनमें से किसी वादका अनुयायी होना उन्होंने पसंद नहीं किया । इस प्रकार उन्होंने एक प्रकारसे अनेकान्तवादका रास्ता साफ किया। भगवान् महावीरने तत्तद्वादोंके दोष और गुण दोनोंकी और दृष्टि दी । प्रत्येक वादका गुणदर्शन तो उस उस वादके स्थापकने प्रथमसे कराया ही था, उन विरोधीवादोंमें दोषदर्शन भ० बुद्धने किया । तब भगवान् महावीरके सामने उन वादोंके गुण और दोष दोनों आ गए। दोनों पर समान भावसे दृष्टि देने पर अनेकान्तवाद खतः फलित हो जाता है। भगवान महावीरने तत्कालीनवादों के गुणदोषोंकी परीक्षा करके जितनी जिस वादमें सच्चाई थी उसे
इस प्रश्नको ईनरके स्वतन्त्र अस्तित्व या नास्तित्व का प्रश्न भी कहा जा सकता है। २ वही।
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