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________________ २९४ परिशिए । [० १६-१४ दिशागको भी यही बात इष्ट थी । इससे भी यही कहा जा सकता है कि दिज्ञानको पक्षवचनअमीष्ट नहीं था । दिग्नागकी एक कारिका इस प्रकार है "स्वनिश्चयवदन्येषां निधयोत्पादनेच्छया । पक्षधर्मत्वसम्बन्धसाध्यो केन्यवर्जनम् ॥”- प्रमाणवा० अक० में उद्धत पू० ५७२ । इस कारिकामें आये हुए 'साध्योति' शब्दसे पक्षप्रयोगको आवश्यक समझनेवाले शंका करते थे कि दिमागने पक्षप्रयोग आवश्यक माना है किन्तु इस शंकाका निरास जयं धर्मकीर्ति किया है तथा प्रज्ञाकरने उक्त कारिकाके अर्थको स्पष्ट किया हैं उससे ज्ञात होता है कि दिग्नागको पक्षप्रयोग अभीष्ट नहीं था । यही “हेत्वर्थविषयत्वेन तदशकोकिरीरिता ।” प्रमाणवा० ४.१८ । "तु आचार्यस्य पक्षवचनमसाधनत्वेनेडमिति कथं ज्ञायत इत्याह- हेतोरचे साच्यः, स विषयोऽस्य इति हेत्वर्थविषयः तरवेन साध्यार्थोपदर्शकत्वेन तस्य पक्षवचनंस्य साम्यसाधनं प्रति मशकस्य उतिरीरिता- निर्दिष्टा माचार्येण - 'तत्रातुमेषनिर्देशो हेत्वर्थविषयो मतः" इत्यनेन प्रभ्येन । ततो ज्ञायते पक्षवचनमसाधन मिष्ठमाचार्यस्येति । मनो० ४.१८ । प्रज्ञाकरने दिमागी उक्तकारिकाके अंशका इस प्रकार व्याख्यान किया है- "बलाकं तु योऽनुमेयनिर्देशः सहेत्वर्थविषयत्वेन, म साधनत्वेन, अतः साक्षात् साधनत्वप्रतिपाद तस्य साध्यस्य उत्तरशकता कबिता । कथं तर्हि - पक्षधर्मत्वसम्बन्धसाध्योकि निर्देशाभ्युपगमः । नास्यायमर्थः- पक्षधर्मका सम्बन्धच साभ्योतिवेति । अपि तु सम्बन्धोकिसंगता साभ्योकि सम्बन्धसाप्योतिः । यत् कृतकं तदनित्यमिति व्यात्यन्तर्गता साग्यो कर्म प्रतिज्ञारूपेण । अवश्यं हि साधने व्यापकत्वं साम्पत्योपदर्शनीयम् ।" प्रमाणवा• अलं० पृ० ५७२ । दिनागके न्यायमुखके किसी टीकाकारने पक्षप्रयोग संबंधी पूर्वपक्षका जो परिहार किया था वह परिहार भी धर्मकीर्तिको जंचा नहीं और उसने उक्त पूर्वपक्ष और परिहार दोनोंको विडम्बना मात्र बताया है - इससे भी यही फलित होता है कि पक्षप्रयोगकी अनावश्यकता बतानेवाले धर्मकीर्ति नहीं किन्तु दिमाग है- प्रमाणवा० मनो० ४. २७ । प्रवाणवा० अलं० पृ० ५८२ । इस बातकी साक्षी भर्तृहरि भी देते हैं कि पक्षप्रयोगकी अनावश्यकता बौद्धोंने सिद्ध की थी। भर्तृहरि धर्मकीर्ति से पहले हुए हैं। अत एव यह कहा जा सकता है कि धर्मकीर्तिके भी पहले पक्षाप्रयोग बौद्धपरंपरामें प्रतिपादित हुआ था । संभवतः वह कथन दिनागके मन्तव्यको लेकर ही हो - वाक्य० कां० ३. पृ० १०९ । सिद्धसेनने दिग्नागके इसी मन्तव्यका - " तत्प्रयोगोऽत्र कर्तव्यो हेतोर्गोचरदीपकः ॥” इत्यादि कारिकाओं में निरास किया है । कारिका १४ ५०, न्यायसू० १.१.३३ । न्यायबि० पृ० ७९ । प्रमाणवा० ४.८६ । न्यायप्र० पृ० १ । न्यायवि० १७२ । प्रमाणसं० का० २० । परी० ३.२० । प्रमाणन ० ३. १४ । प्रमाणमी० १.२.१३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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