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अनुमानचर्चा |
वातोद्धम, रक्त और प्रस्निग्ध सन्ध्या, वारुण या माहेन्द्र सम्बन्धी या और कोई प्रशस्त उत्पात - इनको देखकर जब सिद्ध किया जाय कि सुवृष्टि होगी - यह अनागतकालग्रहण है ।
उक्त लक्षणोंका विपर्यय देखनेमें आवे तो तीनों कालोंके ग्रहणमें भी विपर्यय हो जाता है। अर्थात् अतीत कुदृष्टिका, वर्तमान दुर्भिक्षका और अनागत कुवृष्टिका अनुमान होता है यह भी अनुयोगद्वार में सोदाहरण' दिखाया गया है ।
कालमेदसे तीन प्रकारका अनुमान होता है इस मतको चरकने भी खीकार किया है -
"प्रत्यक्ष पूर्व त्रिविधं त्रिकालं चाऽनुमीयते । गूढो धूमेन मैथुनं गर्भदर्शनात् ॥ २१ ॥ एवं व्यवस्यन्त्यतीतं बीजात् फलमनागतम् । बीजात् फलं जातमिहैव सदृशं बुधाः " ॥ २२ ॥ चरक सूत्रस्थान अ० ११
अनुयोगगत अतीतकालग्रहण और अनागतकालग्रहणके दोनों उदाहरण माठर में पूर्ववत् के उदाहरणरूपसे निर्दिष्ट हैं जब कि स्वयं अनुयोगने अभ्रविकारसे वृष्टिके अनुमानको शेषवत् माना है। तथा न्यायभाष्यकारने नदीपूरसे भूतवृष्टिके अनुमानको शेषवत् माना है ।
(ऊ) अवयवचर्चा ।
अनुमानप्रयोग या न्यायवाक्यके कितने अवयव होने चाहिए इस विषयमें मूल आगमों में कुछ नहीं कहा गया है । किन्तु आ० भद्रबाहुने दशवैकालिक नियुक्तिमें अनुमानचर्चा में न्यायवाक्यके अवयवोंकी चर्चा की है । यद्यपि संख्या गिनाते हुए उन्होंने पांच' और दश "अत्रयव होनेकी बात कही है किन्तु अन्यत्र उन्होने मात्र उदाहरण या हेतु और उदाहरण से भी अर्थसिद्धि होनेकी बात कही है" । दश अवयववोंको भी उन्होंने दो प्रकारसे गिनाए हैं । इस प्रकार भद्रबाहुके मतमें अनुमानवाक्यके दो, तीन, पांच, दश, दश इतने अवयव होते हैं ।
प्राचीन वादशास्त्रका अध्ययन करने से पता चलता है कि शुरू में किसी साध्य की सिद्धिमें हेतुकी अपेक्षा दृष्टांतकी सहायता अधिकांशमें ली जाती रही होगी । यही कारण है कि बादमें जब हेतुका स्वरूप व्याप्तिके कारण निश्चित हुआ और हेतुसे ही मुख्यरूप से साध्यसिद्धि मानी जाने लगी तथा हेतु सहायकरूपसे ही दृष्टान्त या उदाहरण का उपयोग मान्य रहा तब केवल दृष्टान्तके बलसे की जानेवाली साध्यसिद्धिको जात्युत्तरों में समाविष्ट किया जाने लगा । यह स्थिति न्यायसूत्रमें स्पष्ट है । अत एव मात्र उदाहरणसे साध्यसिद्धि होनेकी भद्रवाहुकी बात किसी प्राचीन परंपराकी ओर संकेत करती है ऐसा मानना चाहिए ।
, "अम्भस्स निम्मलत्तं कसिणा या गिरी सविज्जुआ मेहा । थणियं वा उभामो संज्ञा रता पणिट्ठा (द्धा) या ॥ १ ॥ वारुणं वा महिंदं वा अण्णयरं वा पसस्थं उप्पायं पासित्ता तेणं साहिजा जहा - सुवुट्टी भविस्सह । " २" पर्सि चेव विवज्जासे तिविहं गहणं भवद्द, तं जहा" इत्यादि ।
३ दश० नि० ५० | या० ८९ से ९१ । ४ गा० ५० गा० ९२ से । १२ से तथा १३७ ।
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५ ० ४९ । ६ गा०
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