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प्रस्तावना ।
(३) अनुमानचर्चा |
(अ) अनुमानके मेद - अनुयोगद्वार सूत्रमें 'तीन भेद किये गये हैं
(१) पूर्ववत्
(२) शेषवत् (३) दृष्टसाधर्म्यवत्
प्राचीन चरक, न्याय, बौद्ध ( उपायहृदय पृ० १३ ) और सांख्यने भी अनुमानके तीन भेद तो बताये हैं । उनमें प्रथमकें दो तो वही हैं जो अनुयोगमें है । किन्तु अन्तिम भेदका नाम अनुयोग की तरह दृष्टसाधर्म्यवत् न न होकर सामान्यतोदृष्ट है ।
प्रस्तुतमें यह बता देना आवश्यक है कि अनुयोगमें अनुमानके स्वार्थ और परार्थ ऐसे दो भेद नहीं किये गये । अनुमानको इन दो भेदोंमें विभक्त करनेकी परंपरा बादकी है । न्यायसूत्र और उसके भाष्य तक यह स्वार्थ और परार्थ ऐसे भेद करनेकी परंपरा देखी नहीं जाती । बौद्धोंमें दिग्नागसे पहले के मैत्रेय, असंग और वसुबन्धुके ग्रन्थोंमें भी वह नहीं देखी जाती । सर्व प्रथम बौद्धोंमें दिग्नागके प्रमाणसमुच्चयमें और वैदिकोंमें प्रशस्तपादके भाष्यमें ही स्वार्थ- परार्थ भेद देखे जाते हैं। जैनदार्शनिकोंने अनुयोगद्वारस्वीकृत उक्त तीन भेदोंको स्थान नहीं दिया है। किन्तु स्वार्थपरार्थरूप भेदोंको ही अपने ग्रन्थों में लिया हैं इतना ही नहीं बल्कि तीन भेदोंकी परंपराका कुछने खण्डन भी किया है।
(आ) पूर्ववत्
पूर्ववत् की व्याख्या करते हुए अनुयोगमें कहा है कि -
"माया पुतं जहा नहुं जुषाणं पुणरागयं ।
कार्ड पचभिजाणेजा पुण्यलिङ्गेण केणई ॥
तं जहा- खत्तेण वा वण्णेण वा लंडणेणवा मसेण वा तिलपण वा"
-७१
तात्पर्य यह है कि पूर्वपरिचित किसी लिङ्गके द्वारा पूर्वपरिचित वस्तुका प्रत्यभिज्ञान करना पूर्ववत् अनुमान है ।
उपायहृदय नामक बौद्धग्रन्थमें भी पूर्ववत् का वैसा ही उदाहरण है -
"यथा षडङ्गलि पिडकमूर्धानं बालं दृष्ट्वा पश्चादृद्धं बहुश्रुतं देवदत्तं वा षडलि स्मरणात् सोयमिति पूर्ववत्" पृ० १३ ।
उपायहृदयके बादके प्रन्थोंमें पूर्ववत् के अन्य दो प्रकारके उदाहरण मिलते हैं । उक्त उदाहरण छोडनेका कारण यही है उक्त उदाहरणसूचित ज्ञान वस्तुतः प्रत्यभिज्ञान है । अत एवं प्रत्यभिज्ञान और अनुमानके विषयमें जबसे दार्शनिकोंने भेद करना शुरू किया तबसे पूर्ववत्का
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१ विशेष के लिये देखो प्रो० ध्रुवका 'त्रिविधमनुमानम्' भोरिएण्टल कोंग्रेसके प्रथम अधिवेशनमें पढ़ा गया व्याख्यान । २ चरक सूत्रस्थान में अनुमानका तीन प्रकार है ऐसा कहा है किन्तु नाम नहीं दियेदेखो सूत्रस्थान अध्याय ११. लो० २१, २२, न्यायसूत्रे १.१.५ । मूल सांख्यकारिकामें नाम नही है सिर्फ तीन प्रकारका उल्लेख है का० ५ । किन्तु माठरने तीनोंके नाम दिये हैं। तीसरा नाम मूलकारको सामान्यतो दृष्ट ही इट है - का० ६ । ३ प्रमाणसमु० २.१ । प्रशस्त० पु० ५६३,५७७ । ४ न्यायवि० ३४१, ३४२ । तस्वार्थश्लो० पृ० २०५ । स्याद्वादर० पृ० ५२७ ।
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