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________________ भगवान् बुद्धका अनात्मवाद । 'क्या अकृत और अपरकृत दुःख है " 'नहीं " 'तब क्या है ! आप तो सभी प्रश्नोंका उत्तर नकारमें देते हैं, ऐसा क्यों ?" 'दुःख स्वकृत है ऐसा कहनेका अर्थ होता है कि जिसने किया वही भोग करता है । किन्तु ऐसा कहने पर शाश्वतवादका अवलंबन होता है । और यदि ऐसा कहूँ कि दुःख परकृत है तो इसका मतलब यह होगा कि किया किसी दूसरेने और भोग करता है कोई अन्य । ऐसी स्थिति में उच्छेदवाद आ जाता है 1 अत एव तथागत उच्छेदवाद और शाश्वतवाद इन दोनों अन्तोंको छोड़कर मध्यम मार्गका - प्रतीत्य समुत्पादका उपदेश देते हैं कि अविद्यासे संस्कार होता है, संस्कारसे विज्ञान .. • स्पर्शसे दुःखइत्यादि " - संयुत्तनिकाय XII 17. XII 24 तात्पर्य यह है कि संसार में सुख-दुःख इत्यादि अवस्थाएँ हैं, कर्म है, जन्म है, मरण है, बन्ध है, मुक्ति है - ये सब होते हुए भी इनका कोई स्थिर आधार आत्मा हो ऐसी बात नहीं है; परंतु ये अवस्थाएँ पूर्व-पूर्व कारणसे उत्तर-उत्तर कालमें होती हैं और एक नये कार्यको, एक नई अवस्थाको उत्पन्न करके नष्ट हो जाती हैं। इस प्रकार संसारका चक्र चलता रहता है। पूर्वका सर्वथा उच्छेद मी इष्ट नहीं और धौव्य मी इष्ट नहीं । उत्तर पूर्वसे सर्वथा असंबद्ध हो, अपूर्व हो यह बात मी नहीं किन्तु पूर्वके अस्तित्वके कारण ही उत्तर होता है । पूर्वकी सारी शक्ति. उत्तरमें आ जाती है। पूर्वका कुल संस्कार उत्तरको मिल जाता है । अत एव पूर्व अब उत्तर रूपमें अस्तित्वमें है । उत्तर पूर्व से सर्वथा भिन्न मी नहीं, अभिन्न मी नहीं। किन्तु अव्याकृत है । क्यों कि भिन्न कहने पर उच्छेदवाद होता है और अभिन्न कहने पर शाश्वतवाद होता है । भगवान् बुद्धको ये दोनों वाद मान्य न थे; अत एव ऐसे प्रश्नोंका उन्होंने अव्याकृत' कह कर उत्तर दिया है । इस संसारचक्रको काटनेका उपाय यही है कि पूर्वका निरोध करना । कारणके निरुद्ध हो जानेसे कार्य उत्पन्न नहीं होगा । अर्थात् अविद्याके निरोधसे तृष्णाके निरोधसे उपादानका निरोध, उपादानके निरोधसे भवका निरोध, भवके निरोधसे जन्मका निरोध, जन्मके निरोधसे मरणका निरोध हो जाता है । किन्तु यहाँ एक प्रश्न होता है कि मरणानन्तर तथागत बुद्धका क्या होता है ! इस प्रश्नका उत्तर भी अव्याकृत है। वह इसलिये कि यदि यह कहा जाय कि मरणोत्तर तथागत होता है तो शाश्वतवादका और यदि यह कहा जाय कि नहीं होता तो उच्छेदवादका प्रसंग जाता है । अत एव इन दोनों वादों का निषेध करनेके लिये भ० बुद्धने तथागतको मरणोत्तरदशामें अव्याकृत कहा है । जैसे गंगाकी बालुका नाप नहीं, जैसे समुद्रके पानीका नाप नहीं, इसी प्रकार मरणोत्तर तथागत गंभीर है, अप्रमेय है अत एव अव्याकृत है। जिस रूप, वेदना, संज्ञा, आदिके कारण तथागत की प्रज्ञापना होती थी वह रूपादि तो प्रहीण हो गये । अब तथागतकी प्रज्ञापनाका कोई साधन नहीं बचता इसलिये वे अव्याकृत हैं । इस प्रकार जैसे उपनिषदोंमें आत्मवादकी या ब्रह्मवादकी पराकाष्ठाके समय आत्मा या ब्रह्मको 'नेति नेति' के द्वारा अवक्तव्य प्रतिपादित किया गया है, उसे सभी विशेषणोंसे पर बताया जाता १ संयुक्तनिकाय XLIV 1, 7 and 8. २ संयुत निकाय XLIV Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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