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प्रस्तावना ।
ऐसा होना चाहिए- जरा कैसे होती है ! जरा-मरण कैसे होता है ! जाति कैसे होती है ! भव कैसे होता है ! तब भगवान् बुद्धका उत्तर है कि ये सब प्रतीत्यसमुत्पन्न हैं । मध्यम मार्गका अवलंबन लेकर भगवान् बुद्ध समझाते हैं कि शरीर ही आत्मा है ऐसा मानना एक अन्त है और शरीरसे. मित्र आत्मा है ऐसा मानना दूसरा अन्त है। किन्तु मैं इन दोनों अन्तोंको छोडकर मध्यम मार्गसे उपदेश देता हूँ किः -
अविद्या होनेसे संस्कार, संस्कारके होनेसे विज्ञान, विज्ञानके होनेसे नाम-रूप, नाम-रूपके होनेसे छः आयतन, छः आयतनोंके होनेसे स्पर्श, स्पर्शके होनेसे वेदना, वेदनाके होनेसे तृष्णा, तृष्णाके होनेसे उपादान, उपादानके होनेसे भव, भवके होनेसे जाति-जन्म, जन्मकें होनेसे जरा-मरण है । यही प्रतीत्यसमुत्पाद है' ।
आनन्दने एक प्रश्न भगवान् बुद्धसे किया कि आप बारबार लोक शून्य है ऐसा कहते हैं इसका तात्पर्य क्या है ? बुद्धने जो उत्तर दिया उसीसे बौद्धदर्शनकी अनात्मविषयक मौलिक मान्यता व्यक्त होती है:
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"यस्मा च खो आनन्द सुरूअं अत्तेन वा अन्तनियेन वा तस्मा सुम्नो लोको ति दुबति । किं चमानन्द लु असेन वा अन्तनियेन वा ? वक्तुं खो आनन्द सु अन्तेन वा अतनिचैन वा ......... रूपं रूपविज्ञाणं” इत्यादि । - संयुक्त निकाय XXXV. 85. भगवान् बुद्धके अनात्मवादका तात्पर्य क्या है ? इस प्रश्नके उत्तरमें इतना स्पष्ट करना आवश्यक कि ऊपरकी चर्चासे इतना तो भलीभाँति ध्यान में आता है कि भगवान् बुद्धको सिर्फ शरीरात्मवाद ही अमान्य है इतना ही नहीं बल्कि सर्वान्तर्यामी नित्य, ध्रुव, शाश्वत ऐसा आत्मवाद मी अमान्य है । उनके मतमें न तो आत्मा शरीरसे अत्यन्त भिन्न ही है और न आत्मा शरीरसे अभिन ही । उनको चार्वाकसम्मत भौतिकवाद मी एकान्त प्रतीत होता है और उपनिषदोंका कूटस्थ आत्मवाद मी एकान्त प्रतीत होता है। उनका मार्ग तो मध्यम मार्ग है । प्रतीत्यसमुत्पादवाद है । वही अपरिवर्तिष्णु आत्मा मरकर पुनर्जन्म लेती है और संसरण करती है ऐसा मानने पर शाश्वतवाद' होता है और यदि ऐसा माना जाय कि माता-पिताके संयोगसे चार महाभूतोंसे आत्मा उत्पन्न होती है और इसी लिए शरीरके नष्ट होते ही आत्मा भी उच्छिन, विनष्ट और लुप्त होती है, तो यह उच्छेदवाद है।
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तथागत बुद्धने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद दोनोंको छोड़कर' है। भगवान बुद्धके इस अशाश्वतानुच्छेदवादका स्पष्टीकरण निम्न संवादसे होता है
'क्या भगवन् गौतम ! दुःख स्वकृत है ?'
'काश्यप ! ऐसा नहीं है ।'
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'क्या दुःख परकृत है ?"
'नहीं ।'
"क्या दुःख स्वकृत और परकृत है ?'
'नहीं ।'
१ संयुतनिकाय XII. 85. अंगुत्तरनिकाय ३ । निकाय XII. 17.
मध्यम मार्गका उपदेश दिया
२ दीघनिकाय । १ ब्रह्मजाकसुत ।
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३ संयुत
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