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भगवान् बुद्धका अनात्मवाद ।
महापुरुषोंके पहले भारतीय दर्शनकी स्थिति जाननेका साधन उपनिषदोंसे बढ़कर अन्य कुछ हो नहीं सकता । अत एव हमने ऊपर उपनिषदोंके आधारसे ही भारतीय दर्शनोंकी स्थिति पर कुछ प्रकाश डालनेका प्रयत्न किया है । उस प्रकाशके आधार पर यदि हम जैन और बौद्ध दर्शनके मूल तत्वोंका विश्लेषण करें तो दार्शनिक क्षेत्रमें जैन और बौद्ध शास्त्रकी क्या देन है यह सहज ही में विदित हो सकता है। प्रस्तुतमें विशेषतः जैन तत्वज्ञानके विषयमें ही कहना इष्ट है, इस कारण बौद्ध दर्शनके तत्वोंका उल्लेख तुलनाकी दृष्टिसे प्रसंगवश ही किया जायगा और मुख्यतः जैन दर्शनके मौलिक तत्त्वकी विवेचना की जायगी ।
(२) भगवान् बुद्धका अनात्मवाद ।
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भगवान् महावीर और बुद्धके निर्माणके विषयमें जैन-बौद्ध अनुश्रुतियोंको यदि प्रमाण माना जाय तो फलित यह होता है कि भगवान् बुद्धका निर्वाण ई० पू० ५४४ में हुआ था अत एव उन्होंने अपनी इहजीवनलीला भगवान् महावीरसे पहले समाप्त की थी और उन्होंने उपदेश मी भगवान् के पहले ही देना शुरू किया था । यही कारण है कि वे पार्श्व परंपरा के चातुर्यामका उल्लेख करते । उपनिषत्कालीन आत्मवादकी बाढको भगवान बुद्धने अनात्मवादका उपदेश देकर मंद किया । जितने वेगसे आत्मवादका प्रचार हुआ और सभी तत्त्वके मूलमें एक परम तव शाश्वत आत्माको ही माना जाने लगा उतने ही वेगसे भगवान् बुद्धने उस वादकी जड काका प्रयत्न किया । भगवान् बुद्ध विभज्यवादी थे। अत एव उन्होंने रूप आदि ज्ञात वस्तुओंको एक एक करके अनात्म सिद्ध किया । उनकी दलीलका क्रम ऐसा है
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'क्या रूप अनित्य है या निल !
अनिष्य ।
जो अनित्य है वह सुख है या दुःख !
दुःख ।
जो बीज अनित्य है, दुःख है, विपरिणामी है क्या उसके विषयमें इस प्रकारके विकल्प करना ठीक है कि - यह मेल है, यह मैं हूँ, यह मेरी आत्मा है ! ।
नहीं ।
इसी क्रमसे वेदना, ' संज्ञा, संस्कार और विज्ञानके विषयमें भी प्रश्न करके भगवान् बुद्धने अनात्मवादको स्थिर किया है। इसी प्रकार चक्षुरादि इन्द्रियाँ, उनके विषय, तज्जन्य विज्ञाम, मनं, मानसिक धर्म और मनोविज्ञान इन सबको मी अनात्म सिद्ध किया है।
कोई भ० बुद्ध से पूछता कि जरा-मरण क्या है और किसे होता है, जाति क्या है और किसे होती है, भव क्या है और किसे होता है ? तो तुरन्त ही वे उत्तर देते कि ये प्रश्न ठीक नहीं । क्यों कि प्रभकर्ता इन सभी प्रश्नोंमें ऐसा मान लेता है, कि जरा आदि अन्य हैं और जिसको ये जरा आदि होते हैं वह अन्य हैं । अर्थात् शरीर अन्य है और आत्मा पर ब्रह्मचर्यवास - धर्माचरण संगत नहीं । अत एव भगवान् बुद्धका
अन्य है। किन्तु ऐसा मानने
कहना है कि प्रश्नका आकार
• संयुतनिकाय XII. 70.82-37
२ दीनका महानिदानसुस १५ । ३ मज्झिमनिकाय १७८ ।
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