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________________ पृ० ४५. पं० १८] टिप्पणानि । २०५ संस्थाएँ रूढ हो जाती हैं और मनुष्य धार्मिकक्रियाकाण्डोंको यत्रवत् करने लग जाता है तब वैसी संस्थाओंसे और वैसे क्रियाकाण्डोंसे मनुष्य पूरा लाभ नहीं उठा सकता है । ऐसे समय में मनुष्यको अपने अन्धविश्वासों और वहमोंसे मुक्त करने के लिये चार्वाक जैसे वादका उत्थान आवश्यक हो जाता है। वस्तुतः भौतिकवाद व्यक्तिके स्वातन्त्र्यवादको अग्रसर करता है । और आगमप्रामाण्यका बहिष्कार करके तर्कवादका आश्रय लेता है । चार्वाक ने भूतकालीन पीडाजनक भारसे उस समयकी जनताको मुक्त करने के लिये अत्युप्र प्रयत्न किया है । धार्मिक कट्टरताका उसने जो निषेध किया वह उस जमानेमें आवश्यक भी था । फलस्वरूप कट्टरताके स्थानमें आगे जाकर रचनात्मक दार्शनिक विचारों की विविध धाराएँ चलीं । I प्रो० राधा कृष्ण म् का यह कथन भगवान् बुद्ध और महावीर के जमानेको लक्ष्यमें रखकर हुआ है । किन्तु भौतिकवाद का सामान्यलक्षण उन्होंने जो यह बताया कि भौतिकवाद व्यक्ति स्वातत्र्यवाद को प्राधान्य देता है और मनुष्यको रूढिवादसे छुड़ाने का कार्य करता है वह ज य राशि के दर्शनमें भी चरितार्थ हुआ हम देखते हैं । I बृहस्पति के दर्शनने उस जमाने में परलोक के लिये किये जानेवाले नानाप्रकारके वेदप्रतिपादित यज्ञों और क्रियाओंके भारसे मनुष्यको मुक्त करानेका सत्साहस किया और साथ ही दार्शनिक विचारधाराओं तथा ध्यान और तपस्या जैसे धार्मिक आचारों के निर्माणके लिये भी मार्ग साफ कर दिया । किन्तु समय की गतिमें पड कर ये दार्शनिक विचार मी रूढ और खतबुद्धिशक्तिके घातक ही सिद्ध हुए । बुद्ध या महावीर, गौतम या कणाद, जैमिनी या बादरायण, कपिल या पतञ्जली इन सभी के विचारोंको लेकर भिन्न भिन्न दार्शनिक धाराएँ च । किन्तु समयके चक्रमें पडकर सभी दार्शनिक धाराएँ भी रूढ मान्यताओंमें परिवर्तित हो गई । वेदके ऋषिओंके वचनोंका जैसा महत्त्व था वैसा ही महत्त्व इन बुद्ध - महावीर आदि समी दार्शनिकोंके वचनोंका मी हो गया । प्रायः सभी दार्शनिक अपनी बुद्धि और तर्कशक्तिसे खत विचार करना छोड कर उन प्राचीन पुरुषोंके वचनोंका समर्थन करनेमें ही चरितार्थताका अनुभव करने लगे । ऐसे समय में फिर बृहस्पति जैसे एक चार्वाक की अत्यन्त आवश्यकता थी जो इन सभी आगमाश्रित बुद्धिवादिओंको बताता कि तुम्हारी बुद्धिशक्तिका, तर्कशक्तिका मार्ग अवरुद्ध हो गया है। तुम लेगोंने अपनी तर्कशक्तिको एक खीलेमें बांधकर उसका खैरविहार रोक दिया है । अत एव देखो तुम तार्किक कहलानेवालोंमें कैसा परस्पर विरोध आता है और तुम्हारे तर्कवादमें कैसा खोखलापन है । जय राशि ने आठवीं शताब्दिमें यही किया। उन्होंने दार्शनिकोंकी ही दलिलोंका उपयोग परस्पर के खण्डनमें कर के यह सिद्ध कर दिया कि किसी मी दार्शनिक की कोई बात अविरुद्ध सिद्ध नहीं होती है। राशि की परंपरा उन्हीं तक सीमित रही हो ऐसा मालूम देता है । क्योंकि जयरा शि की शैलीका तो दूसरे दार्शनिकोंने पूर्वपक्षोंका खण्डन करनेके लिये उपयोग किया है किन्तु 'प्रामाणप्रमेय सर्वथा असिद्ध है अत एव परम तस्वकी सिद्धि मानी नहीं जा सकती' इस बातका समर्थन ज य राशि के बाद किसीने किया हो ऐसा अभी तक देखनेमें नहीं आया । खण्ड न 3. Indian Philosophy Vol. I. P. 283. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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