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________________ बाबू बहादुरसिंहजी-स्मरणांजलि । ६१५ बहुत ही मितभाषी थे। परंतु जब उनके प्रिय विषयोंकी-जैसे कि स्थापत्य, इतिहास, चित्र माविकीचर्चा चलती तब उसमें वे इतने निमन हो जाते थे कि कितने ही घण्टे व्यतीत हो जाने पर भी उससे थकते नहीं थे और न किसी तरहकी व्याकुलताका अनुभव करते थे। उनकी बुद्धि अत्यंत तीक्ष्ण थी। किसी भी वस्तुको समझने या उसका मर्म पकड़ने में उनको थोड़ा सा भी समय नहीं लगता था। विज्ञान और तत्वज्ञानकी गंभीर बातें भी वे अच्छी तरह समझ सकते थे और उनका मनन करके उन्हें पता लेने थे। तर्क और दलीलबाजी में ये बड़े बड़े कायदाबाजोंसे भी बावी मार लेते थे तथा चाहे जैसा चालाक भी उन्हें अपनी चालाकीसे चकित या मुग्ध नहीं बना सकता था। अपने सिद्धान्त या विचारमें वे बहुत ही दमनस्क थे। एक बार कोई विचार निश्चित कर लेनेके बाद और किसी कार्यका स्वीकार कर लेनेके बाद उसमेंसे चक-विषक होना ये बिलकुल पसंद नहीं करते थे। व्यवहारमें भी वे बहुत ही प्रामाणिक वृत्तिवाले थे। दूसरे धनश्मनोंकी तरह व्यापारमें डल-प्रपंच, धोखाधड़ी या सच-झूठ करके धन प्राप्त करनेकी तृष्णा उनको यत्किंचित् भी नहीं होती थी। उनकी ऐसी व्यावहारिक प्रामाणिकताको लक्ष्य में रख करके इंग्लेण्डकी मर्केन्टाइल बेके गयरेक्टरोंकी बोर्डने अपनी कलकत्ताकी शाखाके बोर्ड में, एक डायरेक्टर होनेके लिये उनसे खास प्रार्थना की थी। इसके पहले किसी भी हिंदुस्तानी व्यापारीको यह मान प्राप्त नहीं हुभा था। प्रतिभा और प्रामाणिकताके साथ उनमें योजनाशक्ति भी बहुत उच्च प्रकारकी थी। उन्होंने अपनी ही खतंत्र बुद्धि और कुशलता द्वारा एक मोर अपनी बहुत बड़ी जमींदारीकी और दूसरी भोर कोलियारी मादि माइनिजके उद्योगकी, जो सुव्यवस्था और सुघटना की थी, उसे देख करके उस-उस विषयके हावा छोग चकित हो जाते थे। अपने घरके छोटे से छोटे कामसे शुरु करके ठेठ कोलियारी जैसे बड़े कारखाने तकमें-जहाँ कि हजारों मनुष्य काम करते रहते हैं-बहुत ही नियमित, सुव्यवस्थित और सुबोजित रीतिसे काम चला करे, वैसी उनकी सदा व्यवस्था रहती थी। दरबानसे लगाकर अपने समवयस्क जैसे पुत्रों तकमें, एक समान, उस प्रकारका शिस्त-पालन और शिष्ट-भाचरण उनके यहाँ दृष्टिगोचर होता था। सिंधीजी में ऐसी समर्थ योजकशक्ति होने पर भी, और उनके पास सम्पूर्ण प्रकारकी साधन-सम्पसन होने पर भी, प्रपंचमय जीवनसे दूर रहते थे और अपने मामकी प्रसिरिके लिये पा लोगों में बने भादमी शिनामे लिये बैसी कोई प्रत्ति नहीं करते थे। रायबहादुर, राजाबहादुर या सर-नाइट लादि सरकारी उपाधियोंको धारण करनेकी पाकोंसिलोंमें जा करके भामरेवक बननेकी उनकी कमी इन नहीं हुई थी। ऐसी भाउम्परपूर्ण प्रवृत्तियोंमें पैसेका दुर्व्यय करनेकी अपेक्षा वे सदा साहित्योपयोगी और शिक्षणोपयोगी कार्यों में अपने धमका सवयय किया करते थे। भारतवर्षकी प्राचीन कला और उससे संबंध रखनेवाली प्राचीन वस्तुभोंकी मोर उनका उस्कट मनुराग था और इसलिये उसके पीछे उन्होंने लाखों रुपये खर्च किये थे। ARTHATANE मनुरूप, भार सोखास स्वीक सिंधीजी के साथ मेरा प्रत्यक्ष परिचय सन् १९३० में प्रारम्भ हुआ। उनकी इच्छा अपने सद्गत पुण्वलोक पिताके स्मारकमें, जिससे जैन साहित्यका प्रसार और प्रकाश हो वैसी, कोई विशिष्ट संस्था स्थापित करनेकी थी। मेरे जीवनके सुदीर्घकालीन सहकारी, सहचारी और सम्मिन पंडितप्रवर श्रीसुखलालजी, बाबू श्री बालचंदजीके विशेष श्रद्धाभाजन थे, अतएव श्री बहादुर सिंहजी भी इन पर उतबाही विशिष्ट सदभाव रखते थे। पंडितजीके परामर्श और प्रस्तावसे, उन्होंने मुझसे इस कार्यकी योजना और व्यवस्था हाथमें लेने के लिये प्रार्थना की और मैंने भी अपनी सभीटतम प्रवृत्तिके भावोंके अनुरूप, उत्तम कोटिके साधनकी प्राप्ति होती देख कर, उसका सहर्ष और सोल्लास स्वीकार किया। सन् १९३१ के पहले दिन, विश्ववंच कवीन्द्र श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुरके विभूतिविहारसमान विचाविण्यात शान्तिनिकेतनके विश्व भारती विधा भवन में 'सिंघी जैन ज्ञानपीठ' की स्थापना की और वहाँ जैन साहित्य के अध्ययन-अध्यापन और संशोधन-संपादन आदिका कार्य प्रारम्भ किया । इस प्रसंगले सम्बन्धित कुछ प्राथमिक वर्णन, इस प्रन्थमालामें सबसे प्रथम प्रकाशित 'प्रबन्ध चिंतामणि' नामक प्रन्धकी प्रस्तावनामें दिया गया है। इसलिये उसकी यहां पुनरुक्ति करना अनावश्यक है। सिंधीजीने मेरी प्रेरणासे 'सिंघी जैन ज्ञानपीठ' की स्थापनाके साथ, जैन-साहित्यके उत्तमोत्तम प्रन्य. रखोंको भाधुनिक शास्त्रीय पद्धतिपूर्वक, योग्य विद्वानों द्वारा सुन्दर रीतिसे, संशोधित-संपादित करवाके प्रकाशित करनेके लिये और वैसा करके जैन साहित्यकी सार्वजनिक प्रतिष्ठा स्थापित करनेके लिये इस 'सिंधी विश्ववंच कवी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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