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________________ ६१४ हिंदू एकेडेमी, दोलतपुर ( बंगाल ). रु० १५०००) तरकी-उर्दू बंगाळा. ५०००) हिंदी - साहित्य परिषद् भवन ( इलाहाबाद ) ११५००) विशुद्धानंद सरस्वती मारवाडी हॉस्पीटल, कलकता 10000 एक मेटर्निटी होम फलका २५०० सिंधी जैन प्रथमा छा । बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी २५०० जीवा हाइस्कू. ५००० जीमागअ लण्डन मिशन हॉस्पीटल. १०००) कलकत्ता- मुर्शिदाबाद जैन मन्दिर. ११०००) जैनधर्मप्रचारक सभा, मानभूम . ५०००) जैन भवन, कलकत्ता. १५०००) जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल, आगरा. ७५००) जैन मंदिर, भागरा. ३५००) जैन हाइस्कूल, अंबाला. २१०००) जैन प्राकृतकोषके लिये. १५००) भारतीय विद्याभवन, बंबई. १०००० ) ** इसके अतिरिक्त हजार-हजार, पाँच पाँचसोकीसी छोटी मोटी रकमें तो उन्होंने सैंकडोंकी संख्यामें दी जिसका योग कोई डेढ दो लाखसे भी अधिक होगा । I साहित्य और शिक्षणकी प्रगति के लिये सिंघीजी जितमा उत्साह और उद्योग दिखाते थे, उतने ही ये सामाजिक प्रगति के लिये भी प्रमखशीख ये अनेक बार उन्होंने ऐसी सामाजिक सभाओं इत्यादिमें प्रमुख रूपसे भाग हे करके अपने इस विषयका मान्तरिक उत्साह और सहकारभाव प्रदर्शित किया था। सन् १९२६ में बंबई में होनेवाली जैन श्वेताम्बर कॉन्फरन्सके खास अधिवेशन के वे सभापति बने थे । उदयपुर राज्यमें भाये हुए केसरीयाजी तीर्थकी व्यवस्था विषयमें स्टेटके साथ जो प्रम उपस्थित हुमा था उसमें उन्होंने सबसे अधिक तन, मन और धनले सहयोग दिया था। इस प्रकार के जैन समाज विकी प्रवृतियोंमें पथायोग्य सम्पूर्ण सहयोग देते थे। परंतु इसके साथ वे सामाजिक मूढता और साम्प्रदायिक कट्टरताके पूर्ण विरोधी भी थे। धनवान और प्रतिष्ठित गिने जाने वाले दूसरे भित मेनोंकी तरह के संकीर्ण मनोवृति या अन्धश्रद्धा की पोषक विकृत भक्तिसे सर्वधा परे रहते थे। भाचार, विचार एवं व्यवहारमें वे बहुत ही उदार और विवेकशील थे। Jain Education International उनका गाईस्थ्य जीवन भी बहुत सादा और साविक था। बंगालके जिस प्रकारके नवाबी गिने जाने वाले वातावरण में वे पैदा और बड़े हुए थे उस वातावरणकी उनके जीवन पर कुछ भी बराब असर नहीं हुई थी और वे गभग उस वातावरणसे बिलकुल अलिप्स जैसे थे। इतने बड़े श्रीमान् होने पर भी, श्रीमंताइके - धनिकता के बुरे विलास या मिथ्या आडम्बर से वे सदैव दूर रहते थे । दुर्व्यय और दुर्व्यसनके प्रति उनका भारी तिरस्कार था। उनके समान स्थितिवाले धनवान जब अपने मोज-शीक, आनंद-प्रमोद, विलास-प्रवास समारम्भ महोत्सव इत्यादिमें लाखों रुपये उड़ाते थे तब संधीजी उनसे बिलकुल भिमुख रहते थे। उनका शौक केवल अच्छे वाचन और कलामय वस्तुभोंके देखनेका तथा संग्रह करनेका था। जब देखो तब वे अपनी गादी पर बैठे बैठे साहित्य, इतिहास, स्थापत्य, चित्र, विज्ञान, भूगोल और भूगर्भविद्याले सम्बन्ध रखने वाले सामयिकों या पुस्तकों को पहले ही दिखाई दिया करते थे । अपने ऐसे विशिष्ट वाचनके शौकके कारण वे अंग्रेजी, बंगाली, हिंदी, गुजराती आदिमें प्रकाशित होने वाले उच्च कोटिके, उक्त विषोंसे सम्बन्ध रखनेवाले विविध प्रकारके सामयिक पत्रों और जर्नोंको नियमित रूपसे मंगाते रहते थे। ऑर्ट, मार्किभॉलॉजी, एपीप्राफी, ज्योग्रॉफी, आइकॉनोग्रॉफी, हिन्दी और माइनिङ्ग आदि विषयोंकी पुस्तकोंकी उन्होंने अपने पास एक अच्छी लाइब्रेरी ही बना ली थी । दे स्वभावसे एकान्तप्रिय और अपभाषी थे। व्यर्थकी बातें करने की ओर या गर्दै मारनेकी मोर उनका बहुत ही अभाव रहता था। अपने व्यावसायिक व्यवहारकी या विशाल कारमारकी मानें भी दे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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