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________________ २९१ का० ९-१२] १. न्यायावतारकी तुलना । और भी तुलना करो___ "सम्बधानुगुणोपायं पुरुषार्थाभिधायकम् । परीक्षाधिकृतं वाक्यमतोमधिकृतं परम् ॥” वही २१५॥ इस कारिकाकी व्याख्या और प्रस्तुत न्याया० की कारिकाकी सिद्धर्षिकृत व्याख्यामें अत्यधिक साम्य है। धर्मकीर्तिने शास्त्रका लक्षण इस प्रकार किया है "शासं यत् सिद्धया युक्त्या खवाचा पन बाध्यते। दृष्टेऽदृष्टेऽपि तद् प्रायमिति चिन्ता प्रवर्तते ।" वही ४.१०८ ॥ और भी तुलना करो-न्यायसू० १.१.७-८ । शास्त्रवा० २. २८ प्रमाणसं० ६३ । लघी० २८ । न्यायवि० ३८७ । परी० ३. ९९ । प्रमाणन० ४. १। कारिका ९. यह कारिका रत्नकरण्डश्रावकाचारमें भी है । प्रो० हीरालालने वर्ष ८ के 'अनेकान्त' मासिकमें निश्चित किया है कि रनकरण्डश्रावकाचार समन्तभद्रकृत नहीं । पंडित सुखलालजीने यह सिद्ध किया है कि प्रस्तुत कारिका न्यायावतारकी ही है । ऐसी स्थिति में यही कहना चाहिए कि रत्नकरण्ड में ही न्यायावतारसे यह कारिका लीगई है।। कारिका १०. खनिश्चयवदन्येषां निश्चयोत्पादनेच्छया" यह वाक्य दिमागका हैप्रमाणवा० अ० पृ० ५४१ । ५७२ । “परार्थमनुमानं तु खरष्टार्थप्रकाशकम्"-इस दिमागकृत परार्थानुमानकी तुलना न्याया० के परार्थमानके साथ करने योग्य है । इस लक्षणवाक्यके लिये देखो, प्रमाणवा० मनो० ४.१ । श्लोकवा० निरा० न्यायरत्ना० पृ० २५२ । प्रमाणवा० अलं० पृ० ५७२। इसी प्रकार प्रशस्तपादमें भी परार्थानुमानके लक्षणमें 'खनिधितामतिपादनम्' यह पद पड़ा हुआ है-प्रशस्त० पृ० ५७७ । माठर०५। कारिका ११-१२. 'द्वयोरपि' इसमें 'अपि' पदके द्वारा और १२ वी संपूर्ण कारिकासे न्यायावतारकारने यही सूचित किया है कि अनुमानकी तरह प्रत्यक्षको भी परार्थ मानना चाहिए । दिमागने अनुमानके ही खार्थ-परार्थरूप दो मैदोंकी स्पष्टता की है । न्यायप्रवेशके प्रथम पथ. "साधनं दूषणं चैव साभासं परसंविदे। प्रत्यक्षमनुमानं च साभासं त्वात्मसंविदे" ॥ से यही सूचित होता है । धर्मकी ति ने उन्हींका अनुकरण किया है । धर्मकीर्तिके टीकाकार प्रज्ञा कर ने इन शब्दोंमें प्रत्यक्षकी परार्थताका निराकरण किया है - "यद्यनुमानोत्पादनाद्वचनम् अनुमानं प्रत्यक्षोत्पादनात् वचनमपि परार्थ प्रत्यक्षं भवेत् । नेदं चतुरस्त्रम् - यथा गृहीतसम्बन्धसरणे वचनात् सति । अनुमानोदयस्तद्वन्न प्रत्यक्षोदयः कचित् ॥ १. उत्तरा इस प्रकार है-"पक्षधर्मत्वसम्बन्धसाध्योक्तेरन्यवर्जनम् ।" यह कारिका प्रमाणसमुख्यकी है-प्रमाणवा० अलं० पृ०५७२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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