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________________ २१९ टिप्पणानि । [५० ६०. पं०.५यहाँ प्रश्न होता है कि यदि प्रमेय एक ही है तब दिमाग ने दो प्रमेय माना है और खयं धर्म की र्ति ने भी प्रारम्भमें प्रमेयद्वैविध्य बताया है उसकी क्या गति होगी। इस प्रश्नका उत्तर धर्म की र्ति ने दिया है कि प्रमेय एक ही है किन्तु उसका ज्ञान दो प्रकारसे होता है । अत एव प्रमेयका द्वैत घट सकता है । उसका कहना है कि एक ही प्रमेयकी गति-ज्ञान ख-पररूपसे होती है । खलक्षणका 'ख'रूप प्रत्यक्ष गम्य है । और 'पररूप अनुमानगम्य है । खलक्षणका असाधारणरूप 'ख'रूप है और वही प्रत्यक्षका विषय है। खलक्षणका 'पर'रूप सामान्य है या साधारणरूप है। यह साधारणरूप 'पर'रूप इसी लिये है कि वह आरोपित है-कल्पित है और वही अनुमानगम्य है। 'सामान्य तो भारोपित है अत एव असत् होनेसे प्रमेय हो नहीं सकता इस लिये तद्विषयक अनुमानका प्रामाण्य पृथक् माना नहीं जासकता' चार्वाक की इस शंकाकां भी समाधान धर्मकी ति ने किया है। उसने चार्वाक की इस बातको तो मान ही लिया कि असत् प्रमेय हो नहीं सकता। किन्तु साथ ही अनुमानके प्रामाण्यको भी दूसरे ढंगसे सिद्ध किया है। प्रस्तुतमें धर्म की र्ति के अभिप्रायको टीकाकारने स्पष्ट किया है कि खलक्षण ही पररूपसे अवगत होता है तब सामान्यलक्षण कहा जाता है। और वह तो सत् ही है अत एव वह अप्रमेय कैसे ! इस लिये उसका साधन भी प्रमाण ही हैं । यह स्पष्टीकरण धर्मकीर्तिके विचारका विवरण है, टीकाकारकी अपनी सूझ नहीं। १-एक ही प्रमेय को उपर्युक्त रीतिसे दो प्रकारका सिद्ध करके धर्म की र्ति ने उसी दिमाग सम्मत प्रमाणविप्लववादका समर्थन किया है । और प्रतिपादित किया है कि प्रमेय दो हैं अत एष प्रमाण भी दो होने चाहिए । इस विषयमें प्रमाणसंप्लववादीकी ओरसे या चार्वाककी ओरसे जो शंकाएँ होती है, उसका समाधान करके दिमागके मतका स्पष्टीकरण भी धर्मकीर्तिने किया है। प्रत्यक्ष ही सामान्य विषयक हो तो क्या बाधा है इस शंकाका समाधान यों किया है कि प्रत्यक्ष निर्विकल्पक होता है और सामान्यका ग्रह विकल्पके विना नहीं होता । अत एव सामाभ्यप्राहक प्रत्यक्ष हो नहीं सकता किन्तु अनुमानको ही उसमें प्रमाण मानना चाहिएप्रमाणवा०२.७५। सामान्यविशेषात्मक तृतीयप्रमेयका असंभव सिद्ध करके उसने प्रमेयद्वित्वके नियमसे प्रमाणद्वित्वका नियम स्थिर किया है-वही० २.७३-८० । ५-धर्म कीर्ति के मतका संक्षिप्त सार यह है कि प्रमेय वस्तुतः एक.ही है किन्तु उसी एक ही वस्तुकी ख और पर रूपसे होनेवाली प्रतीतिके आधार पर ही प्रमेयके दो भेद हैं-खलक्षण और सामान्य । खलक्षण प्रत्यक्ष कहा जाता है क्योंकि वह प्रत्यक्ष प्रमाणका विषय है और "तस्य स्वपरस्पाभ्यां गतेमैयाइयं मवम् ॥"प्रमाणवा०२.५४ । "तल कक्षणस प्रत्यक्षता खरूपेण, अनुमानतः पररूपेण सामान्याकारेण गतेः मेयवयं मतं न भूतसामान्यख सत्वात् ॥"मनो० १. "एकमेवाप्रमेयत्वादसतन्मतं च नः"-प्रमाणवा० २.६४ । ३. वही २.६५ से । १. "स्खलक्षणमेव तु पररूपेण गतेः सामाग्यलक्षणमियम्, सबसदेवेति कपम् अप्रमेयम् । ततः उत्साथनमपि प्रमाणमेव ।" मनो०२.६५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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