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________________ पृ० ६०. ५० ५] टिप्पणानि। २११ स्पष्टीकरण किया है कि खलक्षणको विषय करनेवाला प्रत्यक्ष ही है और सामान्यविषयक अनुमान ही है। ___ भावार्थ यह है कि प्रमाणसंप्लव नहीं किन्तु प्रमाणविप्लव दिना ग संमत है । अर्थात् एक प्रमेयको विषय करने वाले दो प्रमाण नहीं हैं और साथ ही एक प्रमाणके अनेक विषय भी नहीं' हैं । बौद्ध संमत क्ष णि क वाद में से ही उक्त सिद्धान्त फलित हुआ है। २-धर्म की र्ति दिमाग के प्रमाण समुच्चय का वार्तिककार है । अत एव उसने इस विषयकी गंभीर चर्चा की है । उसने भी दिमाग के मूल कथनको दोहराया है "मानं द्विविध विषयद्वैविध्यात् शक्त्यशक्तितः। अर्थक्रियायां, केशादिर्नार्थोऽनर्थाधिमोक्षतः॥" प्रमाणवा० २.१ । धर्म की ति ने दोनों विषयोंका स्पष्टीकरण विस्तारसे किया है। किन्तु खलक्षण और सामान्यके भेदको संक्षेपमें इस प्रकार अवगत करना चाहिए -प्रमाणवा० २.१-३,२७,२८,५०-५१ । स्खलक्षण सामान्य १ अर्थक्रियामें शक्त १ अर्थक्रियामें अशक्त २ असदृश-सर्वतो व्यावृत्त २ सदृश-सर्वव्यक्तिसाधारण ३ शब्दाविषय-अवाच्य ३ शब्दविषय-वाच्य ४ खातिरिक्तनिमित्तके होने पर स्वविषयक ४ खातिरिक्तनिमित्तके होने पर खविषयक बुद्धिका अभाव बुद्धिका सद्भाव । ५ परमार्थसत् - अकल्पित ५ संवृतिसत् - कल्पित ६ सखभाव ६ निःखभाव ७ वस्तु ७ अवस्तु ८ असाधारण ८ साधारण ९ संकेतस्मरणानपेक्षप्रतिपत्तिकस्व ९ संकेतस्मरणसापेक्षप्रतिपत्तिकत्व १० सन्निधानासन्निधानसे १० सन्निधानासन्निधानसे स्फुट या अस्फुट रूप स्फुट या अस्फुट रूप प्रतिभासमेदका जनक प्रतिभासभेदका अजनक। ३- इस प्रकार वलक्षण और सामान्यका भेद सिद्ध करके धर्म की र्ति ने सूचित किया है कि परमार्थसत् तो खलक्षण ही है और सामान्य काल्पनिक है । अत एव सामान्य भाव, अभाव और उभयाश्रित है, खतन्त्र नहीं । जब सामान्यकी खतन्त्र सत्ता ही नहीं तब वस्तुतः प्रमेय एक ही है। और वह खलक्षण ही है । उसीसे अर्थक्रियाकी सिद्धि होती है अत एव प्रमाता उसीकी सत्ता या असत्ताकी विचारणामें तत्पर होता है। १.प्रमाणसमु०१.२। २. "विजानातिन विज्ञानमेकमर्थद्वयं यथा । एकमर्थ विजानाति न विज्ञानद्वयं तथा"-सर्वार्थसिद्धिमें उद्धृत १.१२। ३. “यस्वार्थस्य सविधानासनिधानाम्या ज्ञानप्रतिभासमेवः तत् स्खलक्षणम् । भन्यत् सामान्यलक्षणम् ।" न्यायबि० पृ०२३-२४। ५. "सामान्य त्रिविधं तम भावाभावोभयानयाद" प्रमाणवा० २.५१। ५. "मेयं वेकं स्खलक्षणम्" प्रमा. जवा०२.५३। ६. तसादर्थक्रियासिद्धेः सदसत्ताविचारणातू"-प्रमाणवा०२.५४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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