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प्रस्तावना।
कर उन्होंने वर्णन करना छोड दिया । यदि उक्त प्रक्रियाको ध्यान रखा जाय तो "तवेजति तजति" (ईशा०५), "मणोरणीयान् महतो महीयान्" (कठो० १.२.२०. श्वेता० ३.२०) "संयुक्तमेतत् सरमसरेच व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः। अनीशश्चात्मा" (बेता०.१.८.), "सदसवरेण्यम्" (मुण्डको० २.२.१ ) इत्यादि उपनिषवाक्योंमें दो विरोधी धर्मोका स्वीकार किसी एक ही धर्मिमें अपेक्षाभेदसे किया गया है यह स्पष्ट हो जाता है।
विधि और निषेध दोनों पक्षोंका विधिमुखसे समन्वय उन वाक्योंमें हुआ है । ऋग्वेदके पिने दोनों विरोधी पक्षोंको अखीकृत करके निषेध मुखसे तीसरे अनुभयपक्षको उपस्थित किया है । जब कि उपनिषदोंके ऋषियोंने. दोनों विरोधी धर्मोके स्वीकारके द्वारा उभयपक्षका समन्वय करके उक्त वाक्योंमें विधिमुखसे चौथे उभयभंगका आविष्कार किया।
किन्तु परमतत्त्वको इन.धोका आधार मानने पर उन्हें जब विरोधकी गंध आने लगी तब फिर अन्तमें उन्होंने दो मार्ग लिये । जिन धमाको दूसरे लोग स्वीकार करते थे उनका निषेध कर देना यह प्रथम मार्ग है। यानि ऋग्वेदके ऋषिकी तरह अनुभय पक्षका अवलम्बन करके निषेधमुखसे उत्तर दे देना कि वह न सत् है न असत्-"न सचासत्" (वेता० १.१८)। जब इसी निषेधको “स एष नेति नेति" (वृहदा० १.५.१५) की अंतिम मर्यादा तक पहुंचाया गया तब इसी से फलित हो गया कि वह अवक्तव्य है यही दूसरा मार्ग है । "पतो वाचो निवर्तन्ते" (तैत्तिरी० २.४.) "यहचानभ्युदितम्" (केन० १.४.) "नैव पाचा न मनसा प्रातुं शक्योः " (कठो० २.६.१२). "मरहमव्यवहार्यमग्रामलक्षणामचिस्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपशोपशम शान्तं शिवमतं चतुर्थ मन्यन्ते स मात्मा सविधेयः।" (माल्यो०७) इत्यादि उपनिषद्वाक्योंमें इसी अवक्तव्यभंगकी चर्चा है।
इतनी चर्चासे स्पष्ट है कि जब दो विरोधी धर्म उपस्थित होते है तब उसके उत्तरमें तीसरा पक्ष निम तीन तरहसे हो सकता है।
१ उभय विरोधी पक्षोंको स्वीकार करनेवाला (उभय )। २ उभय पक्षका निषेध करनेवाला (अनुभय)।
३ अवक्तव्य । इनमेंसे तीसरा प्रकार जैसा कि पहले बताया गया, दूसरेका विकसित रूप ही है । अत एवं अनुमय और अबक्तव्यको एक ही भंग समझना चाहिये । अनुभयका तात्पर्य यह है कि वस्तु उभयरूपसे पाय नहीं अर्थात् वह सत् रूपसे व्याकरणीय नहीं और असपसे भी व्याकरणीय नहीं । अत एव अनुभयका दूसरा पर्याय अवक्तव्य हो जाता है।
इस अवक्तव्यमें और वस्तुकी सर्वथा अवक्तन्यताके पक्षको व्यक्त करनेवाले अवक्तव्यमें सूक्ष्म मेद है उसे ध्यानमें रखना आवश्यक है । प्रथमको यदि सापेक्ष अवक्तव्य कहा जाय तो दूसरेको निरपेक्ष अवक्तव्य कहा जा सकता है । जब हम किसी वस्तु के दो या अधिक धोको मनमें रख कर तदर्य शब्दकी खोज करते हैं तब प्रत्येक धर्मके वाचक भिन्न भिन्न शब्द तो मिल जाते हैं किन्तु उन शब्दोंके क्रमिक प्रयोगसे विवक्षित समी धर्मोका बोध युगपत् नहीं हो
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