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________________ १ कार्येण २ पूर्ववत् २ कारणेन Jain Education International ३ गुणेन १ अतीतकालग्रहण १ साधर्म्यापनीत प्रस्तावना-1 १ किश्चिद्वैधर्म्य २ अनुमान २ शेषवत् ४ अवयवेन १ सामान्यदृष्ट ३ औपम्य १ किचित्साधम्योंपनीत २ प्रायः साधर्म्यंपनीत ३ सर्वसाधम्पनी २ प्रत्युत्पन्न कालग्रहण ३ अनागतकालय ० २ प्रायः वैधर्म्य ३ ५ आश्रयेण ४ आगम ३ सर्ववैध २ विशेषदृष्ट २ लोकोत्तर 1 आचारादि १२ For Private & Personal Use Only वैनीत १ लौकिक वेद, रामायण, महाभारत आदि अनुयोगद्वार के प्रारंभमें ही ज्ञानोंके पांच मेद बताये हैं - १ आभिनिबोधिक, २ श्रुत, ३ अवधि, ४ मन:पर्यय और ५ केवल । ज्ञानप्रमाणके विवेचनके प्रसंग में प्राप्त तो यह था कि अनुयोगद्वारके संकलनकर्ता उन्हीं पांच ज्ञानोंको ज्ञानप्रमाणके मेदरूपसे करके उन्होंने नैयायिकोंमें प्रसिद्ध चार प्रमाणोंको ही ज्ञानप्रमाणके I बता देते । किन्तु ऐसा न भेदरूपसे बता दिया है। www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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