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________________ प० ३६. पं०५] टिप्पणानि । पृ० ३४. पं० ७. 'तेन' इस शब्दसे लेकर 'का प्रमा' तकका भाग प्रमाण वार्तिक की कारिका है जिसे इस तरह पढना चाहिए "तेमाग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम इति श्रुतौ। खादेच्छमांसमित्येष नार्थ इत्यत्र का प्रभा ॥" [प्रमाणवा० ३.३१८] हरिभद्र रिने इसे शासवार्ता समुच्चय में (का० ६०५) उद्धृत किया है। इस विषयमें प्रमाण वार्तिक की निम्नलिखित कारिकाएँ अवगाहनके योग्य हैं "अर्थोऽयं नायमों न इति शब्दा वदन्ति न । कम्प्योऽयमर्थः पुरुषैस्ते च रागादिसंयुताः॥ स एकस्तस्वविन्नान्य इति मेदश्च किं कृतः। तबद पुंस्त्वे कथमपि शानी कश्चित् कथं न पः॥ प्रमाणमषिसंवादि वचनं सोऽर्थविद्यादि। नत्यन्तपरोक्षेषु प्रमाणस्यास्ति सम्भवः॥ यस्य प्रमाणसंवादि वचनं तत्कृतं वचः। ३.३१२-३१५। पृ० ३४.५० १६. 'सामान्यस्य' यहाँ से परपरिकल्पित सामान्यका निरास किया गया है। सामान्यका जैन संमत खरूप आगे दिखाया है- देखो कारिका २६६१ । उसी प्रसंगमें हम मी सामान्यके विषयमें विशेष विचार करेंगे। धर्म की तिने सामान्यको निःखभाव सिद्ध करनेके लिये बारबार इसी बातको दोहराया है कि जाति व्यक्तिसे न तो भिन्न ही सिद्ध हो सकती है, न अभिम । देखो-प्रमाणवा० २.२५२९ । ३.१४९-१५३ इत्यादि । प्रज्ञा कर गुप्त ने भी धर्म की र्ति का अनुगमन किया है। प्रस्तुतमें शाम्या चार्य ने प्रज्ञा करका अनुसरण प्रायः शब्दशः किया है - देखो प्रमाणवा. अ०. पृ० २६४,२७९,२८०,३६६,५४४,७२४ आदि । अन्य जैनाचार्य भी इस विषयमें प्रमाण वा र्तिक और तदनुगामी दूसरे बौद्ध आचार्योंका अनुसरण करके ही मीमांसक और नैया यि क संमत जातिवादका खण्डन करते हैं-देखो तत्त्वसं० का० ७०८ से । अष्टश० का० ६५, अष्टस० पृ० ३३,२१४,२१९ इत्यादि । सन्मति० टी० पृ० ११०,२३९,६८९ इत्यादि; न्यायकु० पृ० २८५, प्रमेयक० पृ० ४७०-८१स्याद्वादर पृ० ९५० इत्यादि । पृ० ३६. पं० ३. 'तादात्म्य' तुलना-“अथ सति सम्बन्धे मनु कोऽयं तस्य तेन सम्बन्ध-संयोगः, तादात्म्यम्, विशेषणीभावः, वाच्यवावकमावो वा" । न्यायकु. पृ० १७७। पृ० ३६. पं०५. 'क्षुरिका तुलना-"पूरण प्रदाह-पाटनानुपलब्ध सम्बन्धाभावः"न्यायसू० २.१.५४ । "स्यावेदन सम्बन्धः क्षुरमोदकशब्दोचारणे मुखस्य पाटनपरणे स्याताम्"। शाबर० १.१.५ । "सकयपाययमासाविणियुसंदेसतो अणेगविहं । ममिाणं ममियातोहोर मिणं अमिण्णं च ॥ ५७ खुरमग्गिमोयगुवारणम्मि जम्हा जवपणसवणाणविदोणविवाहो, णनि पूरण तेण मिपणं तु ॥५॥ जहा उ मोयगे भमि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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