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________________ १० २६. पं० २३] टिप्पणानि । १७५ होता है । किन्तु शास्त्रकार उस विषयका प्रक्रियाबद्ध वर्णन करता है । यदि प्रत्येक शासकारकी नवीनता है तो मुख्यतया प्रक्रियामें ही है । यही कारण है कि प्रक्रियामेदसे शासमेद हो जाता है। ___ यवपि प्रमाण सबको प्रसिद्ध है फिर भी जब उसका प्रक्रियाबद्ध वर्णन होने लगा तब मालम दुला कि न्यायदर्शन में उसका जो रूप बताया गया है उससे ठीक विपरीत बात बौद्ध दर्शन में कही गई है । एक ही वस्तुके विचारविषयक दृष्टिकोणमें तथा वस्तुके वर्णनमें मेद हो जानेसे ही दर्शनभेद-शास्त्रमेद हुआ है। वस्तुतः वस्तुके मेदसे शास-दर्शनभेद नहीं है किन्तु वस्तुके विचार व वर्णनमेदसे शास्त्रमेद है । अत एव समी शास्त्रकार समझते हैं कि 'यद्यपि समी लोक किसी एक वस्तुके विषयमें अपने आपको सम्यक्प्रतीतिसंपन्न' समझते हैं फिर मी उनकी वह प्रतीति मिथ्या है । और उस मिथ्याप्रतीतिको दूर करना ही हमारा काम है। इसी समझके बलपर वे अपने माने हुए वस्तुके रूपका खशास्त्र में वर्णन करते हैं और दूसरोंके माने हुए वस्तुके रूपका निराकरण करते हैं। अत एव वस्तुतः देखा जाय तो शास्त्रोंमें विद्याकी अपेक्षा अविधाका ही विलास, अधिक मात्रामें होता है । इस सत्यका स्वीकार भर्तृहरि ने दृढताके साथ किया है । "शालेषु प्रक्रियामेदैरविथैवोपवर्ण्यते।। मनागमविकल्पा तु स्वयं विद्योपवर्ण्यते ॥" वाक्य० ३. पृ० ४८९ । यदि शास्त्रों में अविधाका विलास है तो तब उससे सत्यका दर्शन कैसे हो सकता है, और मोहको दूर करनेके लिये शास्त्रोंके प्रणयनकी बात भी कैसे संगत हो सकती हैइस प्रश्नका उत्तर भी खयं भर्तृहरि ने ही दिया है कि-"असत्ये पद्म नि स्थित्वा ततः सत्यं समीहते"-वाक्य० २.२४० ।' भावोंका जैसा वर्णन किया जाता है वे वस्तुतः वैसे नहीं होते हैं किन्तु इस असत्य वर्णनके मार्गसे ही परमार्थतक पहुंचना सहज है । परमार्थको देखनेमें खयं असमर्थ ऐसे पुरुषोंके लिये शास्त्र चक्षुका काम देते हैं- "शानं चक्षुरपश्यताम् ।" बाक्य० ३. पृ० ४८९। जब योगीतर सामान्य जन तत्त्वके चिंतन पथ पर विचरण करने लगता है तब यदि यह केवल अपने ही तर्कबल पर भरोसा रखकर चले तो संभव है कि वह परमार्थ जाननेमें धोखा खा जाय । अत एव यदि वह दूसरोंके अनुभवोंको जान ले तो उसकी प्रज्ञा विवेकयुक्त बने और उसके बल पर वह परमार्थको सहज ही में पा सके। दूसरोंके अनुभवोंके भंडार शास ही १.देखो, न्यायमं०पू०१५ प्रमाणमी०पू०१। २. तुलना-"धर्मः प्रसिद्धो वा खादप्रतिको वासचेत् प्रसिद्धः, न जिज्ञासितव्यः । अथाप्रसिद्धो नराम् । तदेवदनर्थकं धर्मजिज्ञासाप्रकरणम् । अथवाऽर्थवत् । धर्म प्रति हि विप्रतिपचा बहुविदः केचिदन्यं धर्ममाहुः, केचिदन्यम् । सोऽयमविचार्य प्रवर्तमानः कषिदेवोपाददानो विहन्येत, अनर्थ च ऋच्छेत् । तस्माद्धर्मो जिज्ञासितम्य इति"-शाबर० १.१.१. प्रमाणवा० अलं० पृ०३७।व्यो० पृ०१९०। तरवार्थश्लो००२। कदली. पृ०२०॥ ३.दुलना करो-समयसार गाथा ८"यद्यपि नामायं संवृत्या व्यवहार तथापि न लावता क्षतिः। गजलिमीलनेन वापदयं व्यवहारः प्रवर्यताम् । पुनरयमवि निरूप्यमाणो विशीत एव ।"प्रमाणवा० मलं. मु०पू०४७। १. "भावा पेन निरुप्यन्ते तडूपं नाति पत:"-प्रमाणपा० २.३६०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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