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________________ प्रमाणके भेद | ६.४ किया गया है। स्पष्ट है कि इस में दूसरे दार्शनिकोंकी तरह सिर्फ प्रमेयसाधक तीन, चार या छः आदि प्रमाणों का ही समावेश नहीं है किन्तु व्याकरण कोषादिसे सिद्ध प्रमाणशब्दके यावत् अर्थों का समावेश करनेका प्रयत्न है । स्थानांग मूल सूत्रमें उक्त भेदोंकी परिगणनाके अलावा विशेष कुछ नहीं कहा गया है, किन्तु अन्यंत्र उसका विस्तृत वर्णन है, जिसके विषयमें आगे हम कुछ कहेंगे । चरक में वादमार्गपदोंमें एक खतंत्र व्यवसायपद है। "अथ व्यवसायः - व्यवसायों नाम निश्वयः” विमानस्थान भ० ८ सू० ४७ । सिद्धसेननसे लेकर सभी जैनतार्किकोंने प्रमाणको खपरव्यवसायि माना है । वार्तिककार - शान्त्याचार्यने न्यायावतारगत अवभास शब्दका अर्थ करते हुए कहा है कि "अवभासो व्यवसायो न तु ग्रहणमात्रकम्” का० ३ । अकलंकादि सभी तार्किकोंने प्रमाणलक्षणमें 'व्यवसाय' पदको स्थान दिया है। और प्रमाणको व्यवसायात्मके माना है। यह कोई आकस्मिक बात नहीं । न्यायसूत्रमें प्रत्यक्षको व्यवसायात्मक कहा है । सांख्यकारिकामें भी प्रत्यक्षको अध्यवसायरूप कहा है। इसी प्रकार जैन आगमोंमें भी प्रमाणको व्यवसाय शब्दसे व्यवहृत करनेकी प्रथाका स्पष्टदर्शन निम्नसूत्रमें होता है । प्रस्तुतमें तीन प्रकारके व्यवसायका जो विधान है वह सांख्यादिसंमत' तीन प्रमाण माननेकी परंपरामूलक हो तो आश्चर्य नहीं “तिविहे ब्रवसाय पण्णत्ते तं जहा- पञ्चक्खे पचतिते आणुगामिए ।" स्थानांगसू० १८५ । प्रस्तुत सूत्रकी व्याख्या करते हुए अभयदेवने लिखा है कि "व्यवसायो निश्वयः स च प्रत्यक्षः - अवधिमन:पर्यय केवलाक्यः प्रत्ययात् इन्द्रियामिन्द्रियलक्षणात् निमित्ताज्जातः प्रात्ययिकः, साध्यम् अयादिकम् अनुगच्छति-साध्याभावे न भवति यो धूमादिहेतुः सोऽनुगामी ततो जातम् आनुगामिकम् - अनुमानम् - तद्रूपो व्यवसाय आनुगामिक पवेति । अथवा प्रत्यक्षः स्वयंदर्शनलक्षणः, प्रात्ययिकः - theचनप्रभवः, तृतीयस्तथैवेति” । स्पष्ट है कि प्रस्तुत सूत्रकी व्याख्यामें अभयदेवने विकल्प किये हैं अत एव उनको एकतर अर्थका निश्चय नहीं था । वस्तुतः प्रत्यक्षशब्दसे सांव्यवहारिक और पारमार्थिक दोनों प्रत्यक्ष, प्रत्ययित शब्दसे अनुमान और आनुगामिक शब्दसे आगम, सूत्रकारको अभिप्रेत माने जायँ तो सिद्धसेनसंमत तीन प्रमाणोंका मूल उक्त सूत्रमें मिल जाता है । सिद्धसेनने न्यायपरंपरा संमत चार प्रमाणोंके स्थान में सांख्यादिसंगत तीन ही प्रत्यक्ष, अनुमान और आगमको माना है । आचार्य हरिभद्रको भी येही तीन प्रमाण मान्य है' । ऐसा प्रतीत होता है कि चरकसंहितामें कई परंपराएँ मिलगई हैं क्योंकि कहीं तो उसमें चार प्रमाणों का वर्णन है और कहीं तीनका तथा विकल्पसे दोका भी स्वीकार पाया जाता है। ऐसा १ देखो टिप्पण पृ० १४८ - १५१ । २ चरक विमानस्थान अध्याय ४ । अ० ८. सू० ८४ । ३ अनेकान्तज० डी० पृ० १४२, अनेकान्तज० पु० २१५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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