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________________ टिप्पणानि। [पृ० ८९.५० ११पृ० ८२. पं० १२. 'अणूनाम्' तुलना-"खमेऽपि निरशानिकानेकपरमाणुरूपस तस्यासंवेदनात् ।" सन्मति० टी० पृ० २५१ । पृ० ८२. पं० १५. 'प्रत्यक्षं धर्म की ति ने कहा है ___ "प्रत्यक्ष कल्पनापोढं प्रत्यक्षेणैव सिध्यति ।" प्रमाणवा० २. ५२३ । इसीके उत्तरमें शान्त्या चार्य का प्रस्तुत कथन है - "प्रत्यक्ष कल्पनायुक्तं प्रत्यक्षेणैव सियति।" पृ० ८२. पं० १६. 'ननु' यहाँसे बौद्ध की आशंका है। इसका उत्तर का० ३१ में दिया गया है। __"तस्मानार्थेषु न शाने स्थूलाभासस्तकात्मनः। एकत्र प्रतिषिद्धत्वाद् बहुवपि न संभवः।" प्रमाणवा० २.२११ । देखो, प्रमाणवा० अलं० २.२११ । पृ० ८२. पं० २४. 'पिण्ड' संपूर्ण कारिका इस प्रकार हैं "षट्केन युगपद्योगात् परमाणोः परंशता। पण्णां समानदेशत्वात् पिण्डः स्थावणुमात्रका" विज्ञप्ति० १२ । सन्मति० टी० पृ० २५२ । पृ० ८३. पं० ३. 'अथ' बौद्धपक्ष पर यह शंका है। उसका समाधान बौछने 'नैतदस्ति' (पं० १) से किया है। पृ० ८३. पं० १९. 'परमाणवः परमाणु अतीन्द्रिय होनेसे उसमें प्रत्यक्ष होने की योग्यता नहीं है किन्तु सजातीय परमाणुओंका समूह होता है तब वे अस्यूलरूप होने पर मी स्थूलरूपसे प्रत्यक्ष होते हैं- यह मत भदन्त शुभगुप्तका है । उसीको यहाँ पूर्वपक्ष रूपसे रखा है । देखो तत्त्वसं० पं० पृ० ५५१-५५२ । पृ० ८४. पं० ४. 'उक्तम्' देखो, पृ० ८१. पं० २४ । पृ० ८४. पं० ९. 'निराकरणाद' देखो, पृ० ८१. पं० २५ । पृ० ८४. पं० २६. 'प्रत्यभिज्ञान' बौद्ध क्षणिकवादी होनेसे ऊर्चतासामान्यरूप द्रव्य अर्थात् एकत्वकी साधक प्रत्यभिज्ञाको अप्रमाण मानता है । विशेष चर्चा के लिये देखो, प्रमाणवा० स्वो० कर्ण० पृ० ४९४ से । तत्त्वसं० का० ४४६ से । प्रमाणवा० अलं० लि. पृ० ३४७,७६२ । आप्तमी० का० ५६ । न्यायकु० पृ० ४११ । न्यायमं० वि० पृ० ४४९ । प्रमाणमी० भाषाटि० पृ० ७५ । ५०८४. पं० ३१. 'जन्ममृत्यु' तुलना- “यदि कालकलाव्यापिवस्तुग्रहणमक्षतः । सर्वकालकलालम्बे प्रहः स्यान्मरणावधेः॥” प्रमाणवा० अलं० पृ० ७६२ । पृ० ८६. पं० ७. 'भावा' टिप्पणीमें दिया हुआ क० प्रतिगत पाठ 'भावों ठीक है । उसे मूलमें ले लेना चाहिये और अ० ब० मु० प्रतिगत 'भावा' पाठान्तररूपसे टिप्पणीमें रखना चाहिए । देखो, प्रमाणवा० १.४५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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