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का०६-७] १. न्यायावतारको तुलना। (न्यायबि० पृ० १६ इस सूत्रका मूल मी उतनाही पुराना है । मैत्रेयनापने सात प्रकारके अम बताए हैं और उन प्रमोंसे रहितको अभान्त कहा है।
न्याय बिन्दु टीकाटिप्पणमें मल्लवादी ने कहा है कि वस्तुतः यो गा चार की दृष्टिसे प्रत्यक्ष लक्षणमें अभ्रान्त पद अनावश्यक होते हुए भी धर्म की र्ति ने सौत्रान्ति ककी दृष्टिसें अभ्रान्तपदका प्रहण किया है। इससे स्पष्ट है कि अभ्रान्तपद यह धर्मकीर्तिकी नई सूस नही किन्तु योगाचारके पूर्ववर्ती सौत्रान्तिकका अनुकरण है । इस बातको प्रो० एचीने स्पष्ट शब्दोंमें स्वीकार किया है।
वस्तुतः देखा जाय तो योगा चार निरालम्बनवादी हैं । अतएव प्राह्यप्राहकमावको लेकर जो मी प्रमाणाप्रमाण व्यवहार है उसे भ्रान्त ही मानते हैं । उनके मतमें न सिर्फ अनुमान ही, न सिर्फ प्रत्यक्ष ही, किन्तु समी बाह्यालम्बन प्रत्यय भान्त हैं । अनुमानके लक्षणको समाप्त करके क्रमप्राप्त प्रत्यक्षको अनान्तता सिद्ध करनेके माप अमुमानकी अधान्तता सर्वप्रथम सिद्ध की गई है इसीसे यह अम होता है कि सिंद्ध से न धर्म की र्ति का खण्डम कर रहा है क्योंकि धर्मकीर्तिके टीकाकारोंने प्रत्यक्षमें अमान्तपद देखकर 'भ्रान्तं हि अनुमान न्याय वि०टी० ए०१३) कहा है तथा स्वयं धर्मकीर्तिने-“ममिमायाविसंवादादपि प्रान्त प्रमाणता" प्रमाणवा० २.५६) कहा है।
लिइसेनने अनुमानको अमान्त सिद्ध करने के लिये जो अनुमानप्रयोग किया है उसमें 'समक्ष'- प्रत्यक्षको दृष्टान्त बनाया है । 'प्रत्यक्ष' को मी पूर्वपक्षीने भ्रान्त माना है। तमी तो सिंद्धसेनको यह कहना पड़ा है कि “म प्रत्यक्षमपि प्रान्तं प्रमाणत्वषिनिमयात्।। (६) इस्मादि । पूर्वपक्षी सिर्फ अनुमान या सिर्फ प्रत्यक्षको ही भ्रान्त मामता हो यह बात नहीं किन्तु उसने तो सकल प्रतिभासको ही भान्त माना है। तभी तो सिद्धसेन ने अन्तमें कह दिया कि "सकलप्रतिमासस्य भ्रान्तत्वासिद्धितः स्फुटम् ।" (७) इत्यादि । ऐसी स्थितिमें सिद्धसेनके सामने पूर्वपक्षीके रूपमें धर्मकीर्ति नहीं है क्योंकि उन्होंने तो प्रत्यक्षको स्पष्टरूपसे अमान्त
कहा ही है।
अतएव जब बनान्तपदका प्रयोग धर्मकीर्तिसे भी पहलेके मैत्रेयनाथके योगाचारभूमिशास्त्र में मिलता है और धर्मकीर्तिका खण्डन उपर्युक्त युक्तिसे संभव नहीं तब यही मानना पड़ता है कि प्रस्तुतमें योगाचार सम्मत निरालम्बनवादके 'सर्वमालम्बने भ्रान्तम्" इस सिद्धान्तका ही खण्डन है।
पोगाचारमतमें वस्तुके तीन प्रकारके खमाव माने गये है-कल्पित, परतन्त्र और परिनिष्पक्ष । लोकमे जो वस्तुएँ मिन मिन आकार प्रकारकी दीखती हैं यही परतन खभाव है। परिनिष्पन-परमार्थ प्राह्यप्राहकभावशून्य है किन्तु संवृतिके कारण ग्राह्यग्राहकरूपसे परमार्थका प्रहण होता है-यही तो अम है । इसका निरूपण अनेक प्रकारसे योगाचारके ग्रन्थों में दुणा है और इसी निरालम्बनवादका प्रस्तुतमें खण्डन है । अतएव यहाँ सिद्धसेनके पूर्ववर्ति प्रन्यों से कुछ अवतरण दिये जाते है जिनमें भ्रम-भ्रान्ति जैसे शब्दोंका ग्रहण हुआ है
..देखो, वही p. 464। २. वही। ३. विवरण के लिये देखो. प्रमाणवा मलं०पू०४१४ । म्यायपिम्बुढीकाटिप्पण पू०१९ ।
ज्या०३०
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