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________________ १४९ १० १७. पं० ११] टिप्पणानि। इस प्रश्नके उत्तरमें दार्शनिकोंका ऐकमत्य नहीं । शान्त्या चार्य ने अर्थग्रहण, अगृहीतार्थप्रापण और गृहीतार्थप्रापण ऐसे तीन प्रामाण्य नियामक तत्त्वोंका उल्लेख करके खण्डन किया है और अपना मत बताया है कि व्यवसाय ही ज्ञानका प्रामाण्य है। अर्थग्रहणरूप प्रामाण्य सौत्रान्ति क को सम्मत है । उसके मतसे ज्ञानगत अर्थाकार ही अर्थात् अर्थग्रहण ही प्रामाण्य है जिसे वह सारूप्य भी कहता है। अगृहीतार्थप्रापणका मतलब है अपूर्वार्थप्रापण या अनधिगतार्थप्रापण । बौद्ध' और मीमांस क' दोनोंको यह इष्ट है । दोनों के मतसे ज्ञान अपूर्वार्थक हो तमी प्रमाण है अन्यथा नहीं । वेदकी नित्यताके खीकारके कारण मी मां स कों को प्रामाण्यका नियामक अपूर्वार्थकत्व मानना पडा है। और वस्तुकी ऐकान्तिक अनित्यता-क्षणिकताके खीकारमें ही बौद्ध सम्मत अपूर्वार्थकत्वका मूल है। वेद यदि नित्य न हो तो पौरुषेय होने से श्रुतिको प्रत्यक्ष या अनुमानमूलक मानना पडेगा । ऐसी स्थितिमें वेदभिन्न अन्य पौरुषेय आगम शास्त्र भी प्रमाण हो जायेंगे जो मीमांसकों को इष्ट नहीं । अत एव वेदको अपूर्वार्थक मान कर प्रमाणके लक्षणमें ही 'अगृहीतग्राहि' ऐसा विशेषण मी मांसकों ने दिया । बौद्धों के मतसे समी वस्तुएँ क्षणिक हैं । अत एव जैसे एक ज्ञान भिन्नकालीन दो वस्तुओंको विषय नहीं कर सकता वैसे ही एक ही वस्तु भिन्नकालीन दो ज्ञानोंका विषय हो नहीं सकती। क्योंकि ऐसा होने पर वस्तु अक्षणिक सिद्ध होगी । अत एव बौद्धोंने खसंमत क्षणिकत्वकी रक्षा करनेके लिए प्रमाणको अगृहीतग्राहि-अपूर्वार्थक कहा । इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध और मी मां स क परस्पर अत्यन्त विरुद्ध मन्तव्यके आधार पर एक ही नतीजे पर पहुंचे कि प्रमाण तो अपूर्वार्थक ही होना चाहिए। इस प्रकार प्रमाण लक्षणमें जब इस विशेषणने प्रवेश कर ही लिया तब जैनों ने भी इसे अपने ढंगसे अपनाया है । अकल ने अप्रसिद्ध अर्थकी ख्यातिको प्रमाण कहा"प्रामाण्यमप्रसिद्धार्थख्याते:" प्रमाणसं०३। और माणिक्य नन्दी ने तो अपूर्वार्थ व्यवसायको ही प्रमाण कहा-"खापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्" -परी० १.१ । किन्तु उन्होंने अपूर्व पदका खसंमत अर्थ मी स्पष्ट कर दिया है कि "अनिश्चितोऽपूर्वार्थः, दृष्टोऽपि समारोपात् ताहर" - परी० १.४-५ । प्रभा चन्द्रा चार्य ने स्पष्टीकरण किया है कि हमारे मतमें यह एकान्त नहीं कि विषय अनधिगत ही हो । ज्ञान अधिगत विषयक हो या अनधिगत विषयक, जो मी अव्यभिचारादिसे विशिष्ट प्रमाको उत्पन्न करता है वह प्रमाण कहलायगा' क्षत्र अनधिगतार्थाधिगन्तत्वमेव प्रमाणस्य लक्षणम । तद्धि वस्तन्यधिगतेऽनधिगते बाऽव्यभिचारादिविशिष्ट प्रमा जनयनोपालम्भविषयः।” प्रमेयक० पृ० ५९।। जैनों के मतसे वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है। अत एव द्रव्यार्थिक दृष्टिसे अधिगत वस्तु मी पर्यायार्थिक दृष्टिसे अनधिगत हो सकती है । मी मां स कों ने मी वस्तुको सामान्यविशेषात्मक १. न्यायवि०पू०६। २. "सर्वस्थानुपलब्धेऽर्थे प्रामाण्यं" श्लोकवा०पृ०२१०। ३. "गृहीतमगृहीतं वा स्वार्थ यदि व्यवस्यति । तम लोके न शास्त्रेषु विजहाति प्रमाणताम्" त० श्लोक पृ०१७४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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